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आपराधियों का जाति, धर्म या समुदाय से कोई संबंध नहीं? सुप्रीम कोर्ट जज की ये बातें लोगों के लिए बड़ी सबक

जस्टिस ओका ने आगे कहा कि अपराधी और आपराधिकता का जाति, धर्म या समुदाय से कोई संबंध नहीं है और यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन है.

सुप्रीम कोर्ट जस्टिस अभय एस ओक

Written by Satyam Kumar |Published : October 11, 2024 12:25 PM IST

जाति-धर्म के लेंस में अपराधियों की पहचान करने का सिलसिला सोशल मीडिया पर खूब वायरल है. ये बीमारी सोशल मीडिया के नवैले बाबूओं द्वारा बड़े चाव से फैलाया जा रहा है, भले ही इन स्वघोषित बाबूओं को बगल के पड़ोसी तक ना जानते हों. लेकिन ऐसा हो क्यों रहा है, जब भी किसी अपराधी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाती है तो लोग उसके धर्म-जाति की पहचान आवश्यक रूप से करते हैं. कुछ दिन पहले अखबार में छपी कि अमुक जाति के इतने अपराधियों की एनकाउंटर हुई, फलाने धर्म के इतने अपराधियों की हत्या हुई. एनकाउंटर की निंदा तो कई बार सुप्रीम कोर्ट ने खुली तौर पर की है, यहां तक विषम परिस्थितियों में भी पुलिस को जान लेने पर रोक लगाया है. लेकिन अपराधियों की जाति-धर्म देखना क्यों?... इस पर चर्चा कभी बाद में करेंगे, लेकिन अपराधी और अपराधिक मानसिकता के लोगों की जाति-धर्म देखने की विषय पर अभी चर्चा करेंगे. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस. ओक ने इसे ट्रेंड को दुखद और गंभीर बताया है.

आपराधिकता का जाति, धर्म या समुदाय से कोई संबंध नहीं

आपराधिक न्याय प्रणाली में निराधारित जनजातीय समुदायों के प्रति पूर्वाग्रहों पर आयोजित समारोह में बोलते हुए जस्टिस अभय एस ओका ने असल स्थिति को बेहद चिंताजनक बताया. जस्टिस अभय ओका ने कहा कि  FIR में संदिग्ध या आरोपी व्यक्ति के समुदाय का उल्लेख किया जाता है, जिससे यह पता चले कि वे आपराधिक जाति/ जनजाति से संबंधित है.

लाइव लॉ की अगुवाई में आयोजित इस समारोह में जस्टिस ओका ने आगे कहा कि आपराधिकता का जाति, धर्म या समुदाय से कोई संबंध नहीं है और यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन है. उन्होंने बताया कि कमजोर समुदायों की सीमित कानूनी संसाधनों के चलते उनकी बेगुनाही साबित नहीं हो पाती है, कई बार तो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े जनजातियों के सदस्यों को न्याय प्राप्त करने में भी कठिनाई होती है.

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बिना किसी आधार के अपराधी होने का लगा ठप्पा

जस्टिस ओका ने अपराधी जनजाति अधिनियम,1871 की आलोचना की, इसे ब्रिटिश युग का एक अत्यधिक दमनकारी कानून बताया. उन्होंने कहा कि कानून राज्य को यह अधिकार देता था कि वह घोषित अपराधी जनजाति के कई व्यक्तियों को बिना किसी जांच के अपराधी घोषित कर सके. इस प्रकार के कानूनों ने व्यक्तियों को गरिमापूर्ण जीवन जीने से रोका और उन्हें निरंतर निगरानी में रखा गया और इस कानून के कारण लाखों लोगों पर बिना किसी आधार के अपराधी होने का ठप्पा लगा दिया गया. यह मामला पूर्वाग्रहों पर आधारित है, जो कि वंशानुगत अपराधियों के निर्माण में योगदान देता है.

आपराधिक जनजाति अधिनियम,1871 के निरस्तीकरण की 72वीं वर्षगांठ

सीपीए प्रोजेक्ट और लाइव लॉ के सहयोग से 'भारतीय संविधान और निराधारित जनजातियां' विषय पर आयोजित लेक्चर में सुप्रीम कोर्ट जस्टिस अभय एस ओक ने ये बातें कही. यह कार्यक्रम 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के निरस्तीकरण (रद्द करने) की 72वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित किया गया था. इस दिन को विमुक्त दिवस के नाम से भी जाना जाता है जिसे हर साल 31 अगस्त को मनाया जाता है, जो आपराधिक जनजाति अधिनियम के निरसन को याद करता है.