सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवाद' संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा रहे हैं. कोर्ट पहले भी अपने कई फैसलों में इसे साफ कर चुका है कि इन शब्दों की अलग अलग व्याख्या हो सकती है. बेहतर होगा कि हम इन शब्दों को पश्चिम देशों के संदर्भ में ना देखकर भारतीय संदर्भ में देखें (Supreme Court defends 'Secularism' and 'Socialism' as Core Constitutional Principles). सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान की. यह याचिका बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी, अश्विनी उपाध्याय और बलराम सिंह की ओर से दायर की गई थी.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने प्रस्तावना में से 'सेकुलर और सोशलिस्ट' शब्द को हटाने की मांग याचिका को सुना.
जस्टिस खन्ना ने मौखिक रूप से कहा,
"इस कोर्ट ने अपने फैसले में पहले ही कह चुकी है कि धर्मनिरपेक्षता (Secularism) संविधान का अभिन्न अंग रही है. कोई भी व्यक्ति संविधान के तीसरे पार्ट (मौलिक अधिकार) को गौर से देखेगा तो उसे वहां 'समानता और भाईचारा' शब्द मिलेगा, जो इस बात को साबित करती है 'सेकुलर' पहले से ही संविधान का अभिन्न हिस्सा है."
सुनवाई के दौरान जस्टिस संजीव खन्ना ने याचिकाकर्ताओं से पूछा कि क्या आप नहीं चाहते कि देश सेकुलर रहे! याचिकाकर्ता बलराम सिंह की ओर से पेश वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा कि हम ये नहीं कह रहे है कि भारत सेकुलर नहीं है. हम प्रस्तावना में किए संसोधन को चुनौती दे रहे है.
याचिका में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य ने प्रस्तावना से इन शब्दों को हटाने की मांग की है. उन्होने कहा कि ये शब्द संविधान के मूल प्रस्तावना का हिस्सा नहीं रही है, इसे 1976 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए 42वें संविधान संशोधन के तहत समाजवाद शब्द जोड़ा गया था.
सुप्रीम कोर्ट के सामने सवाल ये भी रखा गया है कि जब प्रस्तावना को 26 नवंबर 1949 में संविधान सभा ने स्वीकार किया था. तब बिना उस तारीख को बदले सीधे प्रस्तावना में बदलाव कर देना क्या सही था. मामले की अगली सुनवाई अब 18 नवंबर को होगी.