नई दिल्ली: तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं के भरण पोषण के मामले में Allahabad High Court ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि तलाक के बाद एक मुस्लिम महिला जीवन भर भरण पोषण की हकदार है, जब तक कि वह दोबारा शादी के बंधन में नहीं बंध जाती.
जस्टिस सूर्य प्रकाश केसरवानी और जस्टिस मो अजहर हुसैन इदरीसी की पीठ ने मुस्लिम महिला याचिकाकर्ता जाहिद खातून की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए ये आदेश दिया है.
पीठ ने इस मामले में फैमिली कोर्ट के पूर्व आदेश करते हुए कहा कि फैमिली कोर्ट ने इस मामले में सबूतों और तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए गलती की है.
हाईकोर्ट ने मामले को पुन: फैमिली कोर्ट को भेजते हुए आदेश दिए है कि संबंधित मजिस्ट्रेट आदेश के तीन माह की अवधि में याचिकाकर्ता के भरण पोषण की राशि और उससे जुड़ी सभी सामग्री पति से वापस दिलाना तय करे. हाईकोर्ट ने कहा कि इस मामले में अनावश्यक रूप से मुकदमे की सुनवाई नहीं टाली जाए.
हाईकोर्ट ने मुकदमें के निस्तारण होने तक या आगामी तीन माह तक पति को भी आदेश दिए है कि वह याचिकाकर्ता महिला को प्रतिमाह 5 हजार रुपये की राशि अंतरिम भरण पोषण और रखरखाव के तौर भुगतान करेगा.
पीठ ने कहा कि डेनियल लतीफी और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट भरण पोषण और रखरखाव के प्रावधानों की निष्पक्ष व्याख्या की है और कहा है कि तलाक के बाद भरण पोषण पूरे जीवन के लिए होगा, तलाकशुदा पत्नी जब तक कि दूसरी बार शादी नहीं कर लेती.
पीठ ने कहा कि इस प्रकार कानून की सही स्थिति यह है कि मुस्लिम अधिनियम, 1986 की धारा 3(2) के तहत, एक तलाकशुदा महिला मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन दायर कर सकती है यदि उसके पूर्व पति ने उसे उचित और उचित प्रावधान और रखरखाव या महर का भुगतान नहीं किया है.
मुस्लिम महिला को अधिकार है कि वह उसके रिश्तेदारों या दोस्तों या पति या उसके किसी रिश्तेदार या दोस्तों द्वारा शादी से पहले या उसकी शादी के समय दी गई संपत्तियों को प्राप्त कर सकती हैं.
पीठ ने कहा कि मुस्लिम अधिनियम, 1986 की धारा 3(3) के तहत, तलाकशुदा महिला के पूर्व पति को निर्देश देते हुए एक आदेश पारित किया जा सकता है कि वह तलाकशुदा महिला की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उचित और उचित प्रावधान और भरण-पोषण का भुगतान करें. जैसा कि वह अपने जीवन स्तर का आनंद अपनी शादी के दौरान और अपने पूर्व पति के साधनों के दौरान लिया है.
पीठ ने कहा कि मुस्लिम अधिनियम, 1986 की धारा 3 में प्रयुक्त शब्द "प्रावधान" इंगित करता है कि कुछ आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ अग्रिम रूप से प्रदान किया जाता हैं. दूसरे शब्दों में, तलाक के समय मुस्लिम पति को भविष्य की जरूरतों पर विचार करना होगा और उन जरूरतों को पूरा करने के लिए पहले से ही तैयारी करनी होगी.
पीठ ने उचित प्रावधानों को भी स्पष्ट करते हुए कहा कि उचित और उचित प्रावधान में उसके निवास, उसके भोजन, उसके कपड़े और अन्य वस्तुओं के लिए प्रावधान शामिल हो सकते हैं. पीठ ने डेनियल लतीफी और अन्य मामले की व्याख्या में कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही पैरा-28 में उचित प्रावधान और रखरखाव के संबंध में धारा 3 के प्रावधानों की उचित व्याख्या की है और कहा है कि उन्हे जीवन भर के लिए देना होगा.
मामले में याचिकाकर्ता उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर निवासी ज़ाहिद खातून का वर्ष 2000 में विवाह के करीब 11 साल बाद तलाक हो गया था. प्रतिवादी और याचिकाकर्ता का पति नुरुल हक खान राज्य के डाक विभाग में एक कर्मचारी के रूप में कार्यरत है. तलाक के बाद जहां पति नुरुल हक खान ने दूसरा विवाह कर लिया, वही याचिकाकर्ता जाहिद खातून ने अकेले रहने का फैसला किया.
तलाक के बाद भी पति ने न तो महर का भुगतान किया और न ही भरण-पोषण की राशि का भुगतान किया और न ही महिला के स्त्री धन को वापस लौटाया. इससे व्यथित होकर खातून ने गाजीपुर के मजिस्ट्रेट कोर्ट में 1986 अधिनियम की धारा 3 के तहत भरण-पोषण की मांग करते हुए आवेदन दायर किया.
वर्ष 2004 मजिस्ट्रेट कोर्ट ने इस मामले को फैमिली कोर्ट को ट्रांसफर किया गया.
फैमिली कोर्ट ने करीब 12 साल बाद इस मामले में फैसला सुनाते हुए सितंबर 2022 में पति को पत्नी को केवल इद्दत की अवधि यानी 3 महीने और 13 दिन के लिए पंद्रह सौ रुपये प्रति माह की दर से गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया.
फैमिली कोर्ट के इस आदेश को जाहिद खातनू ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका के जरिए चुनौती दी.