जब कोई व्यक्ति किसी अपराध के कारण पुलिस द्वारा कारागार में बंद किया जाता है, तो ऐसी स्तिथि में जेल से छूटने के लिए जमानत के प्रावधान को बनाया गया है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 सभी व्यक्तियों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी देता है। इसी मौलिक अधिकार के तहत प्रत्येक व्यक्ति को गिरफ्तार होने पर जमानत मांगने का अधिकार मिला है.
जब कोई व्यक्ति किसी अपराध के कारण पुलिस द्वारा जेल में बंद किया जाता है या उसे पूर्वानुमान होता है कि उसे गिरफ्तार किया जा सकते है तो ऐसी स्तिथि में व्यक्ति को जेल से छूटने के लिए न्यायालय में जो संपत्ति जमा करता है या फिर देने की शपथ लेता है, उसे कानूनी भाषा में जमानत कहते हैं।
इसका मुख्य उद्देश्य यह होता है कि अदालत निश्चिन्त हो जाती है कि आरोपी व्यक्ति सुनवाई के लिए अवश्य प्रस्तुत होगा और यदि आरोपी व्यक्ति सुनवाई के लिए नहीं आता है तो जमानत के तौर पर जमा की गई संपत्ति/ राशि जप्त कर ली जाएगी.
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि प्रत्येक अपराध के लिए जमानत दी जाएगी. इसलिए अपराधों को जमानती और गैर-जमानती अपराधों में बांटा गया है.
जमानती अपराध, वह अपराध होते हैं जिसमें व्यक्ति एक अधिकार के रूप में जमानत की मांग कर सकता है।
वहीं, गैर-जमानती अपराध, वह अपराध होते हैं जिसमें व्यक्ति अधिकार के रूप में जमानत की मांग नहीं कर सकता और न्यायालय अपने विवेक के अनुसार तय करेगा कि आरोपी को जमानत दी जानी चाहिए या नहीं.
भारतीय आपराधिक प्रक्रिया सहिंता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) के अनुसार, जमानत 3 तरह की होती हैं:
· बाध्यकारी जमानत/वैधानिक जमानत (Statutory Bail)
· अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail)
· नियमित जमानत (Regular Bail)
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) के अंतर्गत दी जाने वाली जमानत को 'बाध्यकारी जमानत' या 'वैधानिक जमानत' कहा जाता है. इसके तहत अपराध की प्रकृति के अनुसार यदि पुलिस यथास्थिति 90 दिन या 60 दिन की निर्धारित समय सीमा के भीतर न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र/चार्जशीट दाखिल करने में असफल रहती है तो आरोपी द्वारा जमानत साधिकार मांगी जा सकती है.
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत उन मामलों में जमानत की मांग की जा सकती है, जहाँ आरोपी को उचित आशंका है कि उसे गैर-जमानती अपराध के लिए पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जा सकते है. इस धारा के अन्तर्गत दी जाने वाली जमानत को अग्रिम जमानत कहा जाता है.
धारा 438(1) के अनुसार, आरोपी द्वारा अग्रिम जमानत के लिए अर्जी केवल हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय के समक्ष ही दायर की जा सकती है. न्यायालय अग्रिम जमानत देते समय विभिन्न तरह की शर्तें लगा सकता है. इस जमानत का मतलब यह होता है कि यदि पुलिस आरोपी को गिरफ्तार करती है और आरोपी न्यायालय द्वारा लगाई गई शर्तों का पालन करने पर पुलिस को उसे रिहा करना ही होगा.
नियमित जमानत को भी 2 भागों में बांटा जाता है, जमानती अपराधों और गैर-जमानती अपराधों में नियमित जमानत के लिए अलग प्रावधान दिए गए हैं
आपराधिक प्रक्रिया सहिंता की धारा 436 के अनुसार यदि किसी व्यक्ति को जमानती अपराध के लिए बिना वारंट गिरफ्तार किया जाता है या अदालत के समक्ष पेश किया जाता है और वह व्यक्ति जमानत देने को तैयार है, तो ऐसी आरोपी को रिहा करना अनिवार्य है. इस प्रावधान के अन्तर्गत जमानतीय मामलों में जमानत की मांग अधिकार के रूप में की जा सकती है.
आपराधिक प्रक्रिया सहिंता की धारा 437 के अनुसार हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय से भिन्न अन्य न्यायालय द्वारा व्यक्ति को गैर-जमानती अपराधों में जमानत देने का प्रावधान किया गया है. इन मामलों में न्यायालय अपने विवेक के अनुसार तय करेगा कि आरोपी को जमानत दी जानी चाहिए या नहीं.
· पहला, जिन अपराधों में दोषी को मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सज़ा दी जा सकती हो.
· दूसरा, जहाँ अपराध संज्ञेय अपराध है और आरोपी को पहले भी ऐसी अपराध के लिए दोषी पाया गया है, जिसमें मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक की सज़ा दी जा सकती थी या आरोपी को दो या उससे अधिक बार अजमानतीय और संज्ञेय अपराध का दोषी पाया गया है.
इन दोनों स्तिथि में आम तौर पर जमानत नहीं दी जाती है. लेकिन यदि आरोपी व्यक्ति सोलह वर्ष से कम आयु का है या महिला है या बीमार या दुर्बल है या अन्य विशेष कारण की वजह से जमानत दी जा सकती है.
जमानत देते समय, न्यायालय द्वारा किसी भी तरह की शर्तें लगाई जा सकती हैं और आरोपी के लिए उनका पालन करना अनिवार्य होता है. अगर आरोपी इससे चूकता है तो धारा 437(5) के तहत जमानत को रद्द भी किया जा सकता है.
इसी तरह धारा 439 के तहत हाईकोर्ट और सत्र न्यायालय को जमानत से सम्बंधित विशेष शक्तियाँ प्रदान की गयी है. धारा 439(2) के तहत हाईकोर्ट और सत्र न्यायालय को जमानत रद्द करने का विशेष अधिकार दिया गया है.
जमानत का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है. इसलिए न्यायालयों ने बार-बार व्यक्तियों की स्वतंत्रता को बनाए रखने और उन्हें मनमानी गिरफ्तारी से बचाने की आवश्यकता पर जोर दिया है.