नई दिल्ली: कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद को है, और भारतीय संविधान के तहत के अनुच्छेद 12 के अनुसार यदि बनाया गया कानून संविधान के खिलाफ है तो सुप्रीम कोर्ट उसकी समीक्षा (Review) कर सकता है. इस संवैधानिक व्यवस्था को न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) कहा जाता है, आइये समझते है इसे विस्तार से।
यहां बता दें की भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया गया है, लेकिन अनुच्छेद 13 के तहत सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति दी गई है कि वह कानूनों की समीक्षा कर सकता है। इससे सम्बंधित कानून की संवैधानिकता की जांच होती है।
न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत की उत्पत्ति एंव विकास अमेरिका में मार्बरी बनाम मेडिसन में वर्ष 1803 में पहली बार हुआ। जॉन मार्शल ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया था जो उस समय अमेरिका के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश थे. अतः वहां से इसकी शुरुआत मानी जाती है ।
सामान्य रूप से न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह कार्यपालिका व विधायिका के उन कानूनों तथा आदेशों को असंवैधानिक घोषित कर सकती है जो संविधान के आदर्शों के विपरीत है या उसके विरुद्ध, क्योंकि मान लेते हैं कि कोई बहुमत की सरकार तानाशाही का रूप लेती है तो इससे बचने के कई अवसर (जैसे: न्यायिक समीक्षा का अधिकार, रिट का प्रावधान- Provisison of Writs) होने चाहिए |
न्यायिक समीक्षा सुप्रीम कोर्ट की असाधारण शक्ति है जो कार्यपालिका के मनमाने रवैय से बचाती है एंव भारत में न्यायिक समीक्षा का मूल स्रोत संविधान का अनुच्छेद 13 है।
संविधान के अनुच्छेद 13 में यह कहा गया है कि राज्य ऐसी कोई भी विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग ( 3) द्वारा प्रदत अधिकारों को छीनती है या कम करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई हर एक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी यानी ऐसा कोई कानून जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है या मूल अधिकारों में कमी करता है तो उसे रद्द किया जाएगा |
न्यायालय किसी भी कानून को रद्द/शून्य घोषित आगे बतायें गये आधारों पर कर सकती है; पहला, वह मूल अधिकारों का उल्लंघन करता हो; दूसरा, विधायिका द्वारा उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर बनाया गया हो (जैसे कि कोई राज्य सरकार संघ सूची के विषय पर कानून बनाएं, क्योंकि संघ सूची पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है); और तीसरा, संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत हो (Againt the Basic Structure)