नई दिल्ली: ऐसे कई कानूनी मामले सामने आते है जो आगे चलकर सामान्य जन के लिए एक समस्या बन जातें हैं, और सुप्रीम कोर्ट के लिए विधि का सारवान् प्रश्न (substantial question of law). इन्ही में से एक उपचारात्मक याचिका (Curative Petition) की समस्या थी. अगर किसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय से मृत्युदंड की सजा मिली है तो उसके पास दो विकल्प बचता है अपनी जीवन रक्षा हेतु- दया याचिका और पुनर्विचार याचिका।
संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत दया याचिका, जो कि राष्ट्रपति के पास भेजी जाती है, जबकि पुनर्विचार याचिका सुप्रीम कोर्ट में ही दायर की जाती है। लेकिन इन दोनों याचिकाओं के खारिज हो जाने के बाद भी दोषी के पास क्यूरेटिव पिटीशन का अंतिम विकल्प बचता है। आइये जानते है इसके विषय में ।
क्यूरेटिव शब्द की उत्त्पत्ति ‘Cure’ शब्द से हुई है, जिसका मतलब ‘उपचार’ होता है। क्यूरेटिव पिटीशन (उपचार याचिका) पुनर्विचार (Review) याचिका से थोड़ा अलग होता है. इसमें फैसले की जगह पूरे केस में उन मुद्दों या विषयों को चिन्हित किया जाता है जिसमें उन्हें लगता है कि इन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है.
उपचारात्मक याचिका में यह बताना आवश्यक होता है कि याचिकाकर्त्ता किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दे रहा है। क्यूरेटिव पिटीशन का सर्वोच्च नायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता (Senior Advocate) द्वारा प्रमाणित होना अनिवार्य है। उच्चतम न्यायलय के तीन वरिष्टतम न्यायाधीशों (जिनमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल होते हैं) को भेजी जाती है, तथा इसके साथ ही यह याचिका से संबंधित मामले में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को भी भेजी जाती है।
यदि उच्चतम न्यायालय की यह पीठ उपरोक्त मामले पर पुनः सुनवाई का निर्णय बहुमत से लेती है तो उपचारात्मक याचिका को सुनवाई के लिये पुनः उसी पीठ के पास भेज दिया जाता है जिसने मामले में पहली/पिछली बार फैसला दिया था। उपचारात्मक याचिका पर निर्णय आने के बाद अपील के सारे रास्ते समाप्त हो जाते हैं.
सामान्यतः उपचारात्मक याचिका की सुनवाई जजों के चेंबर (कार्यालय) में ही हो जाती है परंतु याचिकाकर्त्ता के आग्रह पर इसकी सुनवाई ओपन कोर्ट (Open Court) में भी की जा सकती है।
याचिका की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय की पीठ किसी भी स्तर पर किसी वरिष्ठ अधिवक्ता को न्याय मित्र (Amicus Curiae) के रूप में मामले पर सलाह के लिये आमंत्रित कर सकती है।
अधिकतर मामलों में दोषी के पास उपचारात्मक याचिका का विकल्प उपलब्ध नहीं होता है। उपचारात्मक याचिका की व्यवस्था ऐसे विशेष/असामान्य मामलों के लिये की गई है जहाँ उच्चतम न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी न्यायालय के निर्णय से न्याय के सिद्धांत का अतिक्रमण (Grave Miscarriage Of Justice) हो रहा हो।
किसी मामले में याचिकाकर्त्ता द्वारा पुनर्विचार याचिका पहले दाखिल की जा चुकी हो। उपचारात्मक याचिका में याचिकाकर्त्ता जिन मुद्दों को आधार बना रहा हो उन पर पूर्व में दायर पुनर्विचार याचिका में विस्तृत विमर्श न हुआ हो। जब याचिकाकर्त्ता यह प्रमाणित कर सके कि उसके मामले में न्यायालय के फैसले से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है साथ ही अदालत द्वारा आदेश जारी करते समय उसे नहीं सुना गया है।
इस मामले में, कानून का महत्वपूर्ण प्रश्न उठा कि क्या कोई पीड़ित व्यक्ति समीक्षा याचिका खारिज होने के बाद, अनुच्छेद 32 के तहत या अन्यथा, सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम निर्णय या आदेश के खिलाफ किसी राहत का हकदार है?
भारत के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एसपी भरूचा और उनके साथी न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति एसएम कादरी, न्यायमूर्ति यूसी बनर्जी, न्यायमूर्ति एसएन वरियावा और न्यायमूर्ति एसवी पाटिल की एक पीठ ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जिसने इस देश की न्याय वितरण प्रणाली में एक नया आयाम खोला। .
अदालत ने कहा कि चूंकि मामला अनुच्छेद 32[2] के तहत शीर्ष न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का आह्वान करता है, इसलिए प्रावधान पर चर्चा करना महत्वपूर्ण होगा।
तब सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने ही दिये गए निर्णय को बदलने के लिये उपचारात्मक याचिका की अवधारणा प्रस्तुत की. पाँच जजों की पीठ द्वारा उपचारात्मक याचिका की रूपरेखा निर्धारित की गई। इसके बाद उपचारात्मक याचिका के तहत अपने ही निर्णयों पर पुनर्विचार करने के लिये तैयार हो गई।