सुप्रीम कोर्ट ने गुरूवार को कहा कि संवैधानिक अदालतें धनशोधन निवारण अधिनियम (PMLA) के प्रावधानों को प्रवर्तन निदेशालय के लिए ऐसा माध्यम बनाने की अनुमति नहीं दे सकतीं, जिससे लोगों को लंबे समय तक कैद में रखा जा सके. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब पीएमएलए के तहत दर्ज शिकायत की सुनवाई समुचित समय से अधिक लंबी चलने की संभावना है, तो संवैधानिक अदालतों को जमानत देने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करने पर विचार करना होगा.
जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा, ‘‘इसका कारण यह है कि पीएमएलए की धारा 45(1)(2) सरकार को किसी आरोपी को अनुचित रूप से लंबे समय तक हिरासत में रखने की शक्ति नहीं देती है, खासकर तब जब समुचित समय के भीतर मुकदमे के समाप्त होने की कोई संभावना नहीं होती है.’’
पीठ ने कहा, ‘‘समुचित समय क्या होगा यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आरोपी पर किस प्रावधान के तहत मुकदमा चलाया जा रहा है और अन्य कारक क्या हैं। सबसे प्रासंगिक कारकों में से एक अपराध के लिए न्यूनतम और अधिकतम सजा की अवधि है.’’
सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी तमिलनाडु के पूर्व मंत्री एवं द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) नेता सेंथिल बालाजी को धनशोधन के एक मामले में जमानत देते हुए दी. अदालत ने कहा कि देश के आपराधिक न्यायशास्त्र का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि ‘‘जमानत नियम है और जेल अपवाद है.’’
अदालत ने कहा, ‘‘जमानत देने के संबंध में ये कड़े प्रावधान, जैसे कि पीएमएलए की धारा 45(1)(3), ऐसा माध्यम नहीं बन सकते जिसका इस्तेमाल आरोपी को बिना सुनवाई के अनुचित रूप से लंबे समय तक कैद में रखने के लिए किया जा सके.’’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जमानत देने के लिए कानून में उच्च सीमा या कठोर शर्तें निर्धारित की गई हैं. केए नजीब मामले में अपने फैसले का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल केवल संवैधानिक अदालतें ही कर सकती हैं.सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संवैधानिक अदालतें किसी भी मामले में हमेशा अनुच्छेद 32 या अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल कर सकती हैं. पीठ ने कहा कि संवैधानिक अदालतों को पीएमएलए के तहत मामलों से निपटते समय यह ध्यान में रखना होगा कि कुछ अपवाद मामलों को छोड़कर अधिकतम सजा सात साल की हो सकती है.