नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधियों, नेताओं और जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों की बयानबाजी को लेकर अहम फैसला सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सार्वजनिक पदाधिकारियों के बोलने की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत निर्धारित सीमा से आगे नहीं बढ़ा जा सकता है.
मंत्री, सांसद और विधायकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा तय करने की मांग पर जस्टिस सैयद अब्दुल नजीर की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने आज अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 19(2) के तहत निर्धारित सीमा अपने आप में संपूर्ण हैं और सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होती है.
इस मामले की शुरूआत बुलंदशहर बलात्कार मामले में सपा नेता आजमखान की ओर से दिए गए बयान से हुई थी. आजमखान ने इसे "केवल राजनीतिक साजिश और कुछ नहीं" के रूप में करार दिया था. जिससे व्यथित होकर पीड़िता के पिता ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.
जस्टिस एस अब्दुल नजीर की अध्यक्षता में 5 सदस्य पीठ ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए 15 नवंबर 2022 को अपना फैसला सुरक्षित रखा था.
जस्टिस एस अब्दुल नजीर की अध्यक्षता में संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया है.संविधान पीठ में जस्टिस सैयद अब्दुल नजीर के साथ जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस ए एस बोपन्ना, जस्टिस वी राम सुब्रमण्यम और जस्टिस बी वी नागरत्ना शामिल रहें.
पीठ ने कहा कि "अनुच्छेद 19(2) के तहत नहीं पाए गए अतिरिक्त प्रतिबंध, अनुच्छेद 19(1)(ए) के प्रयोग पर नहीं लगाए जा सकते... अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के लिए अनुच्छेद 19(2) में उल्लिखित आधार संपूर्ण हैं.
पीठ ने कहा कि सरकार या उसके मामलों से संबंधित मंत्री द्वारा दिए गए बयान को अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.
आगे बढते हुए पीठ ने कहा कि नागरिकों के अधिकारों के साथ असंगत एक मंत्री द्वारा एकमात्र बयान एक संवैधानिक अपकृत्य नहीं बनता है, लेकिन अगर यह एक सार्वजनिक अधिकारी द्वारा चूक या अपराध की ओर जाता है, तो यह एक संवैधानिक अपकृत्य है.
कोर्ट ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और प्रतिबंधों का प्रयोग न केवल राज्य के खिलाफ बल्कि गैर-राज्य लोगों के खिलाफ भी किया जा सकता है.
पीठ की सदस्य जस्टिस बी वी नागरत्ना ने अपने अलग फैसले में कहा कि सार्वजनिक पदाधिकारियों और मशहूर हस्तियों को अपने बयानों की पहुंच और प्रभाव के संबंध में जनता पर अधिक जिम्मेदार होना चाहिए और भाषण पर अधिक संयम बरतना चाहिए क्योंकि इसका प्रभाव बड़े पैमाने पर नागरिकों पर पड़ता है.
उन्होने अपने फैसले में कहा कि अदालत ऐसे सार्वजनिक पदाधिकारियों के स्वतंत्र भाषण के मौलिक अधिकार पर कोई अधिक या अतिरिक्त प्रतिबंध नहीं लगा सकता है.
जस्टिस बी वी नागरत्ना ने कहा कि यह संसद की बुद्धिमानी है कि वह सार्वजनिक पदाधिकारियों को 19(1)(ए) और 19(2)को ध्यान में रखते हुए नागरिकों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने से रोकने के लिए एक कानून बनाए.
उन्होने कहा कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक बहुत आवश्यक अधिकार है, ताकि नागरिकों को शासन के बारे में अच्छी तरह से सूचित और शिक्षित किया जा सके, यह अभद्र भाषा में नहीं बदल सकता.
जस्टिस नागरत्ना ने अपने फैसले के पक्ष में कहा कि "किसी को तभी बोलना चाहिए जब वह धागे में पिरोए गए मोतियों की तरह हो और जब भगवान उसे सुनते हैं और कहते हैं 'हां हां यह सच है.
जस्टिस नागरात्ना ने इस बात पर पूर्ण असहमति जताई कि गैर-राज्य जनप्रतिनिधियों के खिलाफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग किया जाना चाहिए. उन्होने कहा कि इसका उपाय एक याचिका के तहत किया जा सकता है.
जस्टिस बी वी नागरत्ना ने मंत्री द्वारा बयान देने पर सरकार को जिम्मेदार ठहराए जाने के मामले पर कहा कि यदि कोई मंत्री अपनी व्यक्तिगत क्षमता में बयान देता है, तो सरकार को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है.
लेकिन एक मंत्री का बयान यदि उसकी आधिकारिक क्षमता में दिया गया है और अपमानजनक हैं और सरकार के मामलों को भी शामिल करते हैं, तो इस तरह के बयानों को सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत के संबंध में राज्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.
पीठ ने अपने फैसले में कई मामलों में मंत्री छिटपुट टिप्पणियां करते है जो सरकार के रुख के अनुरूप नहीं हैं, तो इसे व्यक्तिगत टिप्पणी माना जाएगा. पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में 'भाषण पर नियंत्रण रखना पार्टी का काम है.