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राष्ट्रपति की मंजूरी मिली, वक्फ संशोधन विधेयक 2025 अब कानून बना

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शनिवार को वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2025 को अपनी स्वीकृति दी, जिसे संसद ने इस सप्ताह विचार-विमर्श के बाद पारित किया था.

Written By Satyam Kumar | Published : April 6, 2025 10:31 AM IST

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2025 पर अपनी सहमति दे दी है. राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह विधेयक कानून बन गया है. राज्यसभा में 128 सदस्यों ने विधेयक के पक्ष में और 95 सदस्यों ने विरोध में मतदान किया. वक्फ विधेयक को पारित कराने के लिए राज्‍यसभा में 13 घंटे से अधिक की बहस हुई, जिसमें विपक्षी दलों ने इसे विरोधी मुस्लिम और असंवैधानिक करार दिया. सरकार ने इसे अल्पसंख्यक समुदाय के लिए ऐतिहासिक सुधार बताया. वहीं, कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद, एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी और आम आदमी पार्टी विधायक अमानतुल्लाह खान सहित कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में इस विधेयक की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है. इन याचिकाओं में विधेयक को संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों का उल्लंघन करने वाला बताया गया है.

आर्टिकल 32 के तहत याचिका

आप विधायक अमानतुल्लाह खान ने सुप्रीम कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 32 (Article 32) के तहत याचिका दायर की है. आर्टिकल 32 के तहत-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत, कोई भी व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में सुप्रीम कोर्ट जा सकता है. आप विधायक ने दावा किया है कि यह विधेयक वक्फ अधिनियम, 1995 और 2013 के प्रावधानों को संशोधित करता है, जो मुसलमानों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. साथ ही संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26, 29, 30 और 300-A में निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है. आप नेता के अनुसार, यह विधेयक मुसलमानों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता को कम करता है और अल्पसंख्यकों के अपने धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों के प्रबंधन के अधिकार को कमजोर करता है.

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आर्टिकल 25 और 26 के उल्लंघन का दावा

आप विधायक ने कहा कि वक्फ संशोधित विधेयक की धारा (3r) वक्फ की स्थापना को केवल उन मुसलमानों तक सीमित करती है जिन्होंने कम से कम 5 वर्षों तक इस्लाम का प्रैक्टिस किया हो और जिनके पास संपत्ति हो. यह ऐतिहासिक रूप से प्रचलित वक्फ और अनौपचारिक समर्पण को अयोग्य घोषित करता है, जिससे धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होता है. याचिका में इस बात के लिए सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐतिहासिक फैसले का जिक्र किया.

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आप विधायक ने दावा किया कि  सैयदना ताहिर सैफुद्दीन साहेब बनाम बॉम्बे राज्य (AIR 1962 SC 853) के फैसले में यह स्पष्ट कहा गया है कि धार्मिक मामलों के प्रबंधन का अधिकार अनुच्छेद 26 के अंतर्गत प्रदत्त स्वतंत्रता का हिस्सा है. कमिश्नर, हिंदू धार्मिक अनुदान बनाम श्री लक्ष्मींद्र तीर्थ स्वामीअर ऑफ़ शिरूर मठ (AIR 1954 SC 282) के मामले में न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि धार्मिक संप्रदायों को धर्म के मामलों में स्वायत्तता प्राप्त है, जिसमें संपत्तियों का प्रशासन भी शामिल है. इसलिए विवादित प्रावधान मुस्लिम कानून के तहत मान्यता प्राप्त वक्फ समर्पण की आवश्यक धार्मिक प्रथा को कानूनी रूप से बदलकर इस स्वायत्तता का उल्लंघन करते हैं.

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आर्टिकल 14 का उल्लंघन

आप विधायक ने दावा कि वक्फ संशोधन अधिनियम की धारा 9 और 14 के तहत वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद में गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करने से एक ऐसा वर्गीकरण बनता है जिसमें कोई समझदार अंतर नहीं है और न ही धार्मिक संपत्ति प्रशासन के उद्देश्य से इसका कोई तार्किक संबंध है. यह वर्गीकरण अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है क्योंकि यह मनमाना व्यवहार करता है. याचिका में कहा गया कि पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनवर अली सरकार (AIR 1952 SC 75) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि ऐसा वर्गीकरण जो मनमाने व्यवहार की ओर ले जाता है, अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है. साथ ही बोहरा और आगाखानी समुदायों के लिए अलग प्रावधान (धारा 13) इस्लाम के अन्य संप्रदायों (जैसे देवबंदी या बरेलवी) के समान व्यवहार को दर्शाता नहीं है. यह धार्मिक समुदाय के भीतर असमान व्यवहार को दर्शाता है, जो कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है.

अनुच्छेद 15 के उल्लंघन का दावा

आप विधायक ने दावा किया कि वक्फ संशोधन अधिनियम की धारा 3C किसी भी सरकारी संपत्ति को वक्फ घोषित करने पर रोक लगाती है। यह कानूनी प्रतिबंध, ऐतिहासिक प्रमाण या उपयोगकर्ता की परवाह किए बिना, मुस्लिम समुदाय को असमान रूप से प्रभावित करता है. धारा 3C, धर्म के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाने वाले अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करती है क्योंकि यह एक विशेष समुदाय के धार्मिक प्रथाओं को चुनिंदा रूप से प्रभावित करती है, जिससे असमानता पैदा होती है. आप विधायक ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य (2018) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वास्तविक समानता पर जोर दिया था, लेकिन यह संशोधन उस कसौटी पर खरा नहीं उतरता. यह संशोधन एक समुदाय के धार्मिक रीति-रिवाजों को चुनिंदा रूप से अक्षम करता है.