केसवानंद भारती केस क्यों है आज भी प्रासंगिक - जानिए विस्तार से
नई दिल्ली: भारतीय न्यायपालिका और उसके द्वारा सुनाए गए बड़े फैसलों की जब भी बात होगी, तो उसमें केसवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरला (Kesavananda Bharti vs State of Kerala) case का मामला शीर्ष पर आएगा। ये एक ऐसा केस हैं जिसकी नजीर आज तक दी जाती है, जबकि इस मामले में कोर्ट की सुनवाई को लगभग 50 साल होने को हैं.
यह केस सभी सरकारों को उनकी सीमा रेखा की याद दिलाता रहता है और उन्हें बताता भी है कि देश का संविधान किसी भी सरकार से बड़ा है. साथ ही ये नागरिकों को भी बताता है की उनके अधिकारों और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका का होना कितना जरूरी है.
क्या था केसवानंद भारती केस
केसवानंद भारती केस को बेहतर ढंग से समझने के लिए हम इसे तीन भागों में बाटेंगें।
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पहला : शुरुआत कैसे हुई।
दूसरा : कोर्ट में क्या हुआ।
तीसरा : यह आज भी प्रासंगिक क्यों हैं।
मामला शुरू कहां से हुआ
साल था 1969, केरल की वामपंथी सरकार दो भूमि सुधार कानून लाती है. इन कानूनों के तहत वो जमींदारों और मठों के पास मौजूद जमीन को सरकार अपने अधीन लेना शुरू करती है. इसकी चपेट में केरल में मौजूद इडनीर मठ की करीब 400 एकड़ भूमि भी आ जाती है. इतना ही नहीं सरकार के द्वारा इडनीर मठ के प्रबंधन पर भी कई प्रकार की पाबंदियां लगाई जाती हैं.
जब ये सब हो रहा था, तब इडनीर मठ के प्रमुख थे केसवानंद भारती. अब उनके पास दो रास्ते थे. पहला सरकार की हर बात को चुपचाप मान लें या फिर दूसरा इसके खिलाफ न्यायिक सहायता लें. उन्हौने दूसरा रास्ता चुना . केसवानंद भारती, सरकार के खिलाफ केरल हाई कोर्ट पहुंच गए. उन्हौने सरकार के इस फैसले को संविधान के अनुच्छेद 26 का उलंघन बताया.
क्या कहता हैं अनुच्छेद 26
अनुच्छेद 26 भारत के हर नागरिक को धर्म-कर्म के लिए संस्था बनाने, उनका मैनेजमेंट करने, इस सिलसिले में चल और अचल संपत्ति जोड़ने का अधिकार देता है. अगर प्रथम दृष्टया आप इस मामले को देखते हैं, तो इसमें साफ साफ़ नजर आ रहा है कि सरकार इन अधिकारों का उलंघन कर रही है.
कोर्ट में क्या हुआ
केरल हाईकोर्ट में राहत की उम्मीद लेकर पहुंचे केसवानंद भारती को बड़ा झटका लगा. क्योंकि केरल हाई कोर्ट ने उनकी अपील को ठुकरा दिया। लेकिन इसके बाद उन्हौने देश में न्याय के सबसे बड़े मंदिर यानी सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया. यहां उन्होंने अदालत से संविधान द्वारा अनुच्छेद 25, 26, 14, 19 और 31 के तहत प्रदत्त अधिकारों को लागू कराने की मांग की. केसवानंद भारती का कहना था कि सरकार का कानून उनके संवैधानिक अधिकारों का उलंघन कर रहा है.
जाहिर सी बात है, मामला बहुत बड़ा था, इसलिए सरकार से लेकर पूरे देश की नज़र इस पर थी. तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार की तो इस मामले में खास तौर पर नज़र थी. फिलहाल हम कोर्ट की सुनवाई की बात करते हैं. इस मामले की सुनवाई के लिए 13 जजों की एक बड़ी बेंच का गठन हुआ. ये बेंच भारत के संवैधानिक इतिहास की सबसे बड़ी बेंच थी.
जब मामले की सुनवाई चल रही थी तब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे एसएम सीकरी और केसवानंद भारती का मुकदमा लड़ रहे थे नानी पालकीवाला। ये भारतीय इतिहास के एक ऐसे वकील थे, जिन्हें कोर्ट में सरकारों को पटखनी देने लिए सबसे पहली पसंद माना जाता था.
13 अक्टूबर 1972 को इस ऐतिहासिक मामले की सुनवाई शुरू हुई. ये सुनवाई 23 मार्च 1973 तक चली. ये भारत के इतिहास में अभी तक चले सभी कोर्ट केसों में सबसे ज्यादा दिनों तक चली सुनवाई है. इसके बाद आती है 24 अप्रैल 1973 की तारिख़ जिस दिन केसवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरला मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया।
केसवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरला में कोर्ट का फैसला
इस मामले की सुनवाई के दौरान सभी 13 जज एकमत नहीं थे. लेकिन इसके बावजूद भी मामला 7:6 के अंतर से केसवानंद भारती के पक्ष में चला गया. यहां सिर्फ केसवानंद भारती का केस जीतना ही हैडलाइन नहीं थी बल्कि जो फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा वो भी नज़ीर है.
कोर्ट ने कहा, संविधान का मूल ढांचा अनुल्लंघनीय है और संसद भी इसमें बदलाव नहीं कर सकती है. अदालत ने कहा कि संसद अपने संशोधन के अधिकार का इस्तेमाल कर संविधान की मूल भावना को बदल नहीं सकती है. इतना ही नहीं कोर्ट ने ये भी कहा कि, संसद के पास संविधान में संसोधन का अधिकार तो है लेकिन ये अधिकार असीमित नहीं है.
उच्चतम न्यायालय ने कहा संविधान का संसोधन तभी तक मान्य होगा जब तक संविधान की प्रस्तावना के मूल ढाँचे में बदलाव नहीं होता और ये संसोधन संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ नहीं हो सकता. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को आगे चलकर 'संविधान की मूल संरचना सिद्धांत' के रूप में जगह दी गई.
संविधान की मूल भावना क्या है?
हमारे संविधान निर्माताओं ने न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्र चुनाव, संघीय ढांचा, संसदीय लोकतंत्र को संविधान की मूल भावना कहा गया है. सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला न सिर्फ केरल की सरकार के लिए बड़ा झटका था बल्कि तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार से लेकर आगे की उन सभी सरकारों के लिए एक बड़ा झटका था, जो खुद को स्वयंभू और सर्वोपरि मानती हैं या मानती थी या फिर मानेंगी.
अभी क्यों प्रासंगिक हैं केसवानंद भारती केस
देश की सरकारों का न्यायपालिका से टकराव बहुत पुराना है. केसवानंद भारती बनाम केरल सरकार मामले के दौरान केंद्र में इंदिरा गाँधी की सरकार थी. रिपोर्ट्स के अनुसार वह चाहती थी कि ये मामला केरल सरकार के पक्ष में चला जाए.
कई मीडिया रिपोर्ट्स में ये भी दावा किया गया था कि इंदिरा गाँधी सरकार के द्वारा सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने की भी कोशिश की गई, लेकिन सरकार की इस फैसले पर एक न चली. अब शायद आपको भी लगे कि ये मामला तो केरल की वामपंथी सरकार के खिलाफ था तो इंदिरा सरकार इतना परेशान क्यों थी. इसका जवाब इस फैसले के बाद के घटनाक्रमों को देखने से मिलता है.
साल 1975 में देश में एमर्जेन्सी लगा दी गई. इस दौरान इंदिरा सरकार ने कई संसोधन किये. जैसे संविधान का 39वां और 41वां संसोधन. इसके तहत राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा स्पीकर और प्रधानमंत्री के चुनाव को किसी भी तरह की चुनौती नहीं दी जा सकती थी. वहीं 41वे संसोधन के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और राज्यपालों के खिलाफ किसी भी तरह का केस नहीं किया जा सकेगा. भले ही वो अपने पद पर हो या ना हो. लकिन कोर्ट के द्वारा इन दोनों ही संसोधनों को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया गया. इन फैसलों में भी केसवानंद भारती बनाम केरल सरकार मामले की ही सहायता ली गई.