रॉलेट एक्ट क्या था? इसे काला कानून क्यों कहा जाता था - जानिये विस्तार से
नई दिल्ली: भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में एक दिन ऐसा भी आया जब एक ऐसा अधिनियम पारित हुआ जिसको आज भी लोग काला दिवस के रुप में जानते है और वो है रॉलेट एक्ट । इसको ब्लैक एक्ट के रूप में भी जाना जाता है, इस एक्ट के तहत ना अपील, ना दलील, ना वकील वाला सिद्धांत लागू किया गया था.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद लोकतांत्रिक सुधारों के वादे पर, भारत ने ब्रिटिश युद्ध प्रयासों में बड़े पैमाने पर योगदान दिया था. गरीब भारत के विशाल आर्थिक और जनशक्ति योगदान के बावजूद, और अंग्रेजों द्वारा दिए गए गंभीर आश्वासन के बावजूद, धोखेबाज, बेईमान अंग्रेज लोकतांत्रिक सुधारों के वादे से मुकर गए, और इसके बजाय मार्च 1919 को कठोर रॉलेट अधिनियम लेकर आए.
क्या था रॉलेट एक्ट
रॉलेट एक्ट 1919 का इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा पारित किया गया था और इस अधिनियम के माध्यम से अंग्रेजों का इरादा युद्धकाल (भारत की रक्षा अधिनियम 1915) के दौरान नियोजित दमनकारी प्रावधानों को स्थायी रूप से बदलने का था. रॉलेट एक्ट का आधिकारिक नाम अराजकता और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम 1919 ( Anarchical and Revolutionary Crimes Act of 1919 ) था.
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रॉलेट एक्ट कानून सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता वाली सेडिशन समिति की शिफारिशों के आधार पर बनाया गया था. अंग्रेज सरकार ने 1916 में न्यायाधीश सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक समिति गठित की, जिसका कार्य भारत में क्रांतिकारी आतंकवाद को कुचलने के लिए एक प्रभावी योजना का निर्माण करना था. रॉलेट एक्ट को लार्ड चेम्सफोर्ड के समय में लागू किया गया था.
चूंकि इस अधिनियम ने कई अन्यायपूर्ण प्रावधान पेश किए, इसलिए देश भर की जनता ने इसका विरोध किया. जो 8 मार्च 1919 को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किया गया था. यह एक्ट क्रांतिकारियों के बढ़ते प्रभाव को बुरी तरह कुचलने के लिए लागू किया गया था. इस एक्ट के तहत ना अपील, ना दलील, ना वकील वाला सिद्धांत लागू किया गया, अर्थात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें सीधे जेल में डालकर सजा देने का प्रावधान था.
1919 का रॉलेट एक्ट के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार थे
इस अधिनियम ने पुलिस को अनगिनत अधिकार प्रदान किये थे, पुलिस को परिसर की तलाशी लेने और बिना वारंट के किसी भी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार दिया, पुलिस को राजनीतिक कार्यकर्ताओं और संदिग्धों को बिना कोशिश किए हिरासत में लेने के लिए अधिकृत किया. किसी व्यक्ति को शक के आधार पर ही 2 वर्ष के लिए कारावास में ड़ाल दिए जाने का प्रावधान था. गिरफ्तार व्यक्तियों पर विशेष न्यायाधिकरण द्वारा मुकदमा चलाया जाना जो पूरी तरह से इसी उद्देश्य के लिए स्थापित किया गया था.
ट्रिब्यूनल (अधिकरण) में तीन उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शामिल थे. इस ट्रिब्यूनल द्वारा सुनाया गया निर्णय अंतिम था और अपील की कोई अदालत नहीं थी. गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों को किसी भी कानूनी सहायता का विकल्प चुनने से इनकार कर दिया गया था और उन पर गोपनीयता की कोशिश की गई थी.
यहां तक कि उन्हें अपने आरोप लगाने वालों के बारे में सूचना के अधिकार और उनके खिलाफ पेश किए गए सबूतों से भी वंचित कर दिया गया. सार्वजनिक बैठकों पर पाबंदी लगा दी गई, अर्थात लोग कहीं भी इकठ्ठा नहीं हो सकते थे और किसी त्योहार और मेले में भी लोग इकट्ठा नहीं हो सकते थे.
इस अधिनियम के तहत, ट्रिब्यूनल को सभी प्रकार के सबूतों को स्वीकार करना था, यहां तक कि वे भी जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत अमान्य हैं. औपनिवेशिक सरकार को प्रेस और क्रांतिकारी गतिविधियों पर सख्त नियंत्रण रखने का अधिकार था.
बिल का हुआ विरोध
1919 का रॉलेट एक्ट का राष्ट्रवादियों और आम जनता ने पुरजोर विरोध किया। पूरे देश में औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ आक्रोश था. इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के निर्वाचित भारतीय प्रतिनिधियों जैसे मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना और मजहर उल हक ने बिल के खिलाफ मतदान के बाद परिषद से इस्तीफा दे दिया.
महात्मा गाँधी का कड़ा विरोध
गांधी जी का अब तक भारतीय राजनीति में प्रवेश हो चुका था. उन्होंने इस एक्ट के विरोध में 6 अप्रैल, 1919 ई. को एक देशव्यापी हड़ताल करवायी। दिल्ली में इस आन्दोलन की बागडोर स्वामी श्रद्धानंदजी ने संभाली. वहाँ भीड़ पर चलाई गई गोली में 5 आन्दोलनकारी आहत हुए. लाहौर एवं पंजाब में भी भीड़ पर गोलियाँ चलायी गईं. स्वामी श्रद्धानंद एवं डॉक्टर सत्यपाल के निमंत्रण पर महात्मा गांधी दिल्ली की ओर चले. गांधी जी ने रौलट ऐक्ट की आलोचना करते हुए इसके विरुद्ध सत्याग्रह करने के लिए 'सत्याग्रह सभा' की स्थापना की।.
रॉलेट अधिनियम पर सार्वजनिक आक्रोश के बाद किचलू पहली बार भारतीय राष्ट्रवाद से अवगत हुए. कानून के खिलाफ पंजाब में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए किचलू को गांधी और डॉ. सत्यपाल के साथ गिरफ्तार किया गया था. तीनों की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए, जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक बैठक हुई , जब जनरल रेजिनाल्ड डायर और उसके सैनिकों ने निहत्थे, नागरिक भीड़ पर गोलीबारी की, हजारों लोग मारे गए और हजारों घायल हुए.