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क्या था अरुणा रामचन्द्र शानबाग का केस जिसने भारत में Euthanasia के कानून को बदल दिया

Aruna Ramchandra Shanbaug vs Union Of India

आखिर क्या है यह इच्छामृत्यु का केस, आखिर क्यों दशकों तक अरुणा शानबाग को करना पड़ा इंतजार, आइये विस्तार से जानते है क्या था पूरा मामला।

Written By My Lord Team | Published : July 19, 2023 3:52 PM IST

नई दिल्ली: यह वो ऐतिहासिक मामला है जिसमे एक मृत्युशैया पर पड़ी लाचार महिला द्वारा कई दशकों तक इंसाफ के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार किया गया और जिसके फैसले पर आमजन की निगाहें टिकी हुई थी. ये मामला था अरुणा रामचन्द्र शानबाग (Aruna Ramchandra Shanbaug) का जो एक नर्स के रुप में किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल, मुंबई में कार्यरत थी और सुप्रीम कोर्ट के इच्छामृत्यु पर फैसले का इंतजार कर रही थी।

आखिर क्या है यह इच्छामृत्यु (Euthanasia) का केस, आखिर क्यों दशकों तक अरुणा शानबाग को करना पड़ा इंतजार, आइये विस्तार से जानते है क्या था पूरा मामला।

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अरुणा रामचन्द्र शानबाग बनाम भारत संघ का मामला

मुंबई के King Edward Memorial (KEM) हॉस्पिटल में दवाई का कुत्तों पर एक्सपेरिमेंट करने का डिपार्टमेंट था। इस डिपार्टमेंट में नर्स कुत्तों को दवाई देती थीं उन्हीं में से एक थीं अरुणा शानबाग। 27 नवंबर 1973 को अरुणा ने अपनी ड्यूटी पूरी की और घर जाने से पहले कपड़े बदलने के लिए ,बेसमेंट में गईं। वार्ड ब्वॉय सोहनलाल पहले से वहां छिपा बैठा था। उसने अरुणा के गले में कुत्ते बांधने वाली चेन लपेटकर दबाने लगा, छुड़ाने के लिए अरुणा ने खूब ताकत लगाई, पर गले की नसें दबने से बेहोश हो गईं। अरुणा बेहोशी के बाद कोमा में चली गईं और कभी ठीक नहीं हो सकीं।

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सुप्रीम कोर्ट ने क्यों ठुकरा दी थी याचिका

8 मार्च 2011 को अरुणा को दया मृत्यु (Euthanasia) देने की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी थी। वह पूरी तरह कोमा में न होते हुए दवाई, भोजन ले रही थीं। डॉक्टरों की रिपोर्ट के आधार पर अरुणा को इच्छा मृत्यु देने की इजाज़त नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि याचिकाकर्ता पिंकी वीरानी का इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं है, क्‍योंकि अरुणा की देखरेख KEM हॉस्पिटल कर रहा है।

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बेंच ने कहा था कि अरुणा शानबाग के माता-पिता नहीं हैं। उनके रिश्तेदारों को उनमें कभी दिलचस्पी नहीं रही। लेकिन KEM हॉस्पिटल ने कई सालों तक दिन-रात अरुणा की बेहतरीन सेवा की है, लिहाजा, अरुणा के बारे में निर्णय लेने का हक KEM हॉस्पिटल को है।

बेंच ने यह भी कहा था कि अगर हम किसी भी मरीज से लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा लेने का हक उसके रिश्तेदारों या दोस्तों को दे देंगे तो इस देश में हमेशा यह जोखिम रहेगा कि इस हक का गलत इस्तेमाल हो जाए।

क्या है इच्छामृत्यु (Euthanasia)?

जब कोई मरीज बहुत ज्यादा पीड़ा से गुजर रहा होता है या उसे ऐसी कोई बीमारी होती है जो कि ठीक नहीं हो सकती और जिसमें हर दिन मरीज मौत जैसी स्थिति से गुजरता है तो उन मामलों में इच्छा मृत्यु दी जाती है, और वो भी मरीज की स्थिति को देखते हुए।

कुछ ऐसे देश हैं जो इच्छामृत्यु की इजाजत देते है जैसे कि बेल्जियम, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड और लक्जमबर्ग में Euthanasia (दया या इच्छामृत्यु) की इजाजत है। कुछ देशों में यह विवादास्पद माामला है। लोगो का ये मानना हैं कि किसी को इच्छामृत्यु की इजाजत देना ईश्वर के खिलाफ जाने के समान है।

मरीज के परिवार के लोग भी इसे लेकर सहज नहीं रहते, क्योंकि यह उम्मीद भी रहती है कि मरीज किसी दिन अपनी बीमारी से बाहर आ जाएगा।

इच्छामृत्यु दो वर्गों में विभाजित

पहला है सक्रिय इच्छामृत्यु (Active Euthanasia), इसमें मरीज को डॉक्टर ऐसा जहरीला इंजेक्शन लगाता है जिससे उसकी कार्डिएक अरेस्ट (Cardiac Arrest ) के कारण मृत्यु हो जाती है। दूसरा है निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) इसमें डॉक्टर्स उस मरीज का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा लेते हैं, जिसकी जीने की उम्मीद खत्म हो जाती है।

लेकिन, इनके अलावा एक और प्रकार की इच्छामृत्यू होती है और वह है Physician-assisted suicide. इस मामले में मरीज खुद जहरीली दवाएं लेता है, जिससे मौत हो जाती है। जर्मनी जैसे कुछ देशों में इसकी इजाजत है।

सुप्रीम कोर्ट में पुन: याचिका दायर

सुप्रीम कोर्ट ने कार्यकर्ता-पत्रकार पिंकी विरानी द्वारा की गई जीवन को समाप्त करने की याचिका को स्वीकार करते हुए, मुंबई के अस्पताल और महाराष्ट्र सरकार से शानबाग की चिकित्सा स्थिति पर एक रिपोर्ट मांगी। 24 जनवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तहत तीन सदस्यीय मेडिकल पैनल की स्थापना की गई थी।

शानबाग की जांच करने के बाद, पैनल ने निष्कर्ष निकाला कि वह "स्थायी वानस्पतिक अवस्था" (Vegetative State of Mind) में रहने के अधिकांश मानदंडों को पूरा करती है।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा

शीर्ष अदालत ने कहा कि जो कोमा में जा चुके है जो लोग मौत के आखिरी कगार पर पहुंच चुके है, उन लोगों को वसीयत (Living Will) के आधार पर निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) का अधिकार होगा। उसे सम्मान से जीने का हक है तो सम्मान से मरने का भी हक है।

8 मार्च 2011 को, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में, भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु को वैध बनाने के लिए व्यापक दिशानिर्देशों का एक सेट जारी किया।

निष्क्रिय इच्छामृत्यु के लिए ये दिशानिर्देश - उपचार, पोषण, या पानी वापस लेने का निर्णय - यह स्थापित करते हैं कि जीवन समर्थन को बंद करने का निर्णय माता-पिता, पति या पत्नी या अन्य करीबी रिश्तेदारों द्वारा या उनकी अनुपस्थिति में, "अगले दोस्त" द्वारा लिया जाना चाहिए। निर्णय के लिए अदालत की मंजूरी की भी आवश्यकता होती है।

अरुणा शानबाग की मौत

अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले, अरुणा रामचन्द्र शानबाग को निमोनिया होने का पता चला था। उसे अस्पताल की चिकित्सा गहन चिकित्सा इकाई (MICU) में ले जाया गया और वेंटिलेटर पर रखा गया। 18 मई 2015 की सुबह उनकी मृत्यु हो गई। उसका अंतिम संस्कार अस्पताल की नर्सों और अन्य स्टाफ सदस्यों द्वारा किया गया

इच्छामृत्यु से जुड़ें अन्य मामले

पी रथिनम बनाम भारत संघ (1994)- इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति को मरने का अधिकार’ भी होता है।

ज्ञानकौर Versus पंजाब राज्य (1996) - यह केस क्रिमिनल लॉ और कांस्टीट्यूशनल लॉ का एक महत्वपूर्ण केस है. इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा की आर्टिकल 21 यानी राइट टू लाइफ में राइट टू डाई जुड़ा हुआ नहीं है. जीवन के अधिकार में मृत्यु का अधिकार शामिल नहीं है.

कोर्ट का कहना था कि Article 21 जीवन जीने का अधिकार एक सकारात्मक अधिकार है उसमें केवल जीवन जीने के अधिकार के बारे में बात कही गई है और उसके अधिकारों की सुरक्षा की बात की गई है, इसमें जीवन समाप्त करने की बात नहीं कही गई है. मामले को सुनने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने जब अपना निर्णय दिया कि राइट टू लाइफ एक सकारात्मक कानून है इसमें जीवन जीने की और जीवन के सुरक्षा की बात की गई है इसके अंदर मृत्यु का अधिकार कहीं पर भी नहीं है.

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 1994 के पी रथिनम बनाम भारत संघ के मामले को भी ओवर रूल कर दिया, जिसके बाद आईपीसी (IPC) की धारा 306 के साथ-साथ 309 का संवैधानिक महत्व हो गया.

वर्ष 2000 में, केरल उच्च न्यायालय के समक्ष दो 'आत्महत्या याचिकाएँ' दायर की गईं, जिनमें हाईकोर्ट ने कहा कि इच्छामृत्यु की इजाजत देना आत्महत्या को स्वीकार करने के बराबर होगा।