क्या था बेरुबाड़ी बनाम भारत संघ मामला, जिसने संसद को सोचने पर किया मज़बूर, जानते हैं विस्तार से
नई दिल्ली: स्वतंत्रता के बाद जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन के बाद सीमा-निर्धारण सम्बन्धी समस्याएं सामने दिखने लगी, उन्ही में से एक भारत के पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के दक्षिणी भाग में बेरुबाड़ी नामक जगह का विवाद मुख्य था. इस तरह की समस्या लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा सर सिरिल रेडक्लिफ को विभाजन की सीमा निर्धारण को कम समय में पूरा करने हेतु जिम्मेदारी दी गई थी. जिसके परिणाम के रूप में दिखता है.
ऐसा कहा जाता है कि रेड्क्लिफ ने कई जगहों की बाउंड्री का निर्धारण पुलिस थाना को आधार बनाकर किया जो आगे चलकर विवाद का विषय बना. आइये जानते है क्या था बेरुबाड़ी का मामला.
बेरुबाड़ी का मामला
जैसा की हम जानते है कि उस समय बांग्लादेश भी पाकिस्तान का हिस्सा था जिसे कि पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था. समस्या इस बात से पैदा हुई कि भारत के पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के दक्षिणी भाग में एक जगह थी बेरुबाड़ी, जो पूर्वी पाकिस्तान से सटा हुआ था, और इस क्षेत्र को रेड्क्लिफ महोदय ने सौंपा भारत के पक्ष में लेकिन लिखित रुप में यह नहीं था.
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इसी का फ़ायदा उठाकर पाकिस्तान ने पहली बार 1952 में बेरुबाड़ी संघ का मुद्दा उठाया. चूंकि बेरुबारी एक मुस्लिम आबादी वाला इलाका था इसलिए पाकिस्तान ने कहा कि ये क्षेत्र हमसे सम्बंधित है लेकिन गलती से यह भारत की सीमा में है। ये विवाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री फिरोज़शाह नून और भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच में समझौता, जो की सितंबर 1958 में हुआ, तब तक चलता रहा। इस समझौते के तहत बेरुबाड़ी क्षेत्र को दो भागों में बाँट कर आधा पाकिस्तान को और आधा हिंदुस्तान को देने की बात कही गई.
सरकार की समस्या
इस समझौते को लागू करने के समय सरकार के सामने समस्या थी कि इसे संविधान के अनुच्छेद 3 के तीसरे प्रावधान के तहत अमल में लाया जाएगा या अनुच्छेद 368 के तहत.
अनुच्छेद 3
इसके तहत भारतीय संघ का जो क्षेत्र है संसद चाहे तो उसका पुनर्निर्धारण कर सकती है। इसके तहत कुल 5 प्रावधान है –
पहला – संसद, राज्य में से उसके कुछ भाग को अलग करके, या फिर दो या दो से अधिक राज्यों को मिलाकर या फिर उसके कुछ भाग को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकता है, दूसरा – संसद किसी राज्य के क्षेत्र को बढ़ा सकती है, तीसरा – संसद किसी राज्य के क्षेत्र को घटा सकती है, चौथा – संसद किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकता है। पांचवा – संसद किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकती है.
अनुच्छेद 368 के तहत
साधारण बहुमत द्वारा संशोधन: संसद के साधारण बहुमत द्वारा संविधान के अनेक उपबंध संसद के दोनों सदनों साधारण बहुमत से संशोधित किए जा सकते हैं। ये व्यवस्थाएं अनुच्छेद 368 की सीमा से बाहर हैं। इन व्यवस्थाओं में शामिल हैं:
1. नए राज्यों का प्रवेश या गठन।
2. नए राज्यों का निर्माण और उसके क्षेत्र, सीमाओं या संबंधित राज्यों के नामों का परिवर्तन.
उस समय देश के राष्ट्रपति थे डॉ राजेंद्र प्रसाद, जो संविधान सभा के अध्यक्ष भी रह चुके थे, उन्हे यह एहसास हुआ कि कुछ न कुछ कमी रह गई है, इसीलिए उन्होने मामले को सुप्रीम कोर्ट को सौंप दिया। दरअसल, राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से परामर्श लेने का अधिकार होता है, अतः उन्होने इसी अधिकार का इस्तेमाल किया.
दो बातों पर मांगा गया परामर्श
(1) क्या बेरुबाड़ी यूनियन से संबंधित समझौते के कार्यान्वयन के लिए कोई विधायी कार्रवाई आवश्यक
(2) अगर करना आवश्यक है तो क्या यह अनुच्छेद 3 के तहत किया जाना उचित रहेगा या अनुच्छेद 368 की मदद से संविधान में संशोधन करके।
कानूनी समस्या
यहाँ पर कुछ कानूनी पेंच भी फंसा था क्योंकि 7वीं अनुसूची के संघ सूची के एंट्री नंबर 14 के अनुसार, भारत किसी अन्य देश के साथ संधि या समझौते कर सकता है और उस समझौते को देश में लागू भी कर सकता है, और इसे सपोर्ट करता है अनुच्छेद 253, जिसके अनुसार विदेशी देशों के साथ संधियों और समझौतों क्रियान्वित करने के लिए कानून भी बना सकता है.
वहीं कुछ और प्रावधानों की बात करें तो अनुच्छेद 245 (1) के अनुसार संसद को भारत के क्षेत्र के पूरे या किसी भी हिस्से के लिए कानून बनाने का अधिकार है। अनुच्छेद 248 बताता है कि संसद के पास समवर्ती सूची, राज्य सूची और केंद्र सूची में शामिल नहीं होने वाले विषयों पर भी कानून बनाने की शक्ति है.
प्रस्तावना के संबंध में
प्रस्तावना में एक शब्द लिखा है लोकतांत्रिक गणराज्य। जाहिर है लोकतंत्र में सरकार को शक्ति जनता से मिलती है. पर क्या उससे मिली शक्ति का उपयोग करके उस जनता को ही दूसरे देश को सौंपा जा सकता है जिसने सरकार बनाया है? दूसरी बात ये कि प्रस्तावना में एक और शब्द है संप्रभुता; जिसका मतलब है भारत अपने दम पर खड़ा एक देश है और कोई अन्य देश इसे कुछ ऐसा करने के लिए नहीं कह सकता है जिससे भारत की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचे.
सुप्रीम कोर्ट का परामर्श
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है और ये सरकार को किसी भी प्रकार की कोई शक्ति नहीं देती, न्यायालय ने आगे ये भी कहा कि अनुच्छेद 3 के आधार पर भारत के हिस्से को किसी और को नहीं सौंपा जा सकता, क्योंकि ये देश के अंदर ही सीमा को पुनर्निर्धारण करने की शक्ति देता है, अपनी जमीन को किसी दूसरे देश को देने के लिए नहीं, इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा कि अगर आपको उस समझौते को लागू करना ही है तो अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करके कर लीजिये.
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यही किया। उन्होने 1960 में संविधान में 9वां संशोधन किया और समझौते के अनुरूप अनुसूची 1 में परिवर्तन कर दिया गया। इस तरह ये समझौता पूरा हुआ.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं और इसे बाद में चलकर न्यायालय द्वारा दुरुस्त किया गया.
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)
बेरुबरी यूनियन केस (1960) में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा नहीं है, बल्कि इसे संविधान के प्रावधानों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत माना जाना चाहिए। हालाँकि, केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसले (बेरुबरी) को बदल दिया और यह कहा कि प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा है, जिसका अर्थ यह है कि इसे संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है। हालाँकि ऐसे संशोधन से संविधान का मूलभूत ढांचा बदला नहीं जा सकता है। इस वाद में संविधान पीठ ने 7-6 के मत से निर्णय दिया था.
2015 का भारत
भारत सरकार ने 100वां संविधान संशोधन अधिनियम करके भारत के कुछ हिस्से को बांग्लादेश को हस्तांतरित कर दिया गया और भारत ने बांग्लादेश के कुछ भूभाग को अपने क्षेत्र मं शामिल कर लिया। इसको करने के लिए भारत सरकार को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करना पड़ा.