संविधान का 39वां संशोधन क्या था और इसे Supreme Court ने क्यों निरस्त किया?
नई दिल्ली: केसवानंद भारती केस हमारी न्यायपालिका के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक है. इस केस की सहायता के कई बार सविधान में होने वाले बदलाव की कोशिशों को रोका गया है और सरकारों की कई असंवैधानिक मंशाओं को भी हतोत्साहित गया. आपातकाल के दौरान सरकार के द्वारा अपनी मनमानी से अलग-अलग संविधान संशोधन किये गए. जिसमें जाहिर सी बात है सरकार के अपने हित छिपे हुए थे.
न्यायपालिका पर भी इस दौरान हमले हुए, उसे भी कमजोर करने की कोशिश की गई, लेकिन अंततः न्यायपालिका ही वो संस्था रही जिसने इन सभी गैर वाजिब मांसाओं को हक़ीक़त बनने से रोका. इसका एक उदाहरण संविधान का 39वां संशोधन भी है.
क्या था 39वा संविधान संशोधन
संविधान के 39वे संशोधन के अनुसार, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या सदन के अध्यक्ष के चुनाव से संबंधित किसी भी विवाद पर एक उपयुक्त मंच फैसला लेगा, न कि कोर्ट ऑफ लॉ।
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साल 1971 में देश में लोकसभा चुनाव हुए. इन चुनावों में इंदिरा गांधी रायबरेली सीट से चुनाव लड़ी. इंदिरा की इन चुनावों में भारी मतों से जीत हुई. लेकिन उनके प्रतिद्वंदी राजनारायण इन परिणामों से नाखुश थे. उन्होंने इंदिरा गाँधी की जीत पर सवाल उठाए। राजनारायण ने उनपर चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों के इस्तेमाल का आरोप लगाया और अदालत का दरवाजा खटखटाया।
Allahabad हाई कोर्ट में इस मामले में सुनवाई हुई जिसके बाद जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने आरोपों को सही पाया और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया और अगले 6 साल तक इंदिरा गांधी के चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी.
ये फैसला इंदिरा गांधी के लिए बहुत बड़ा झटका था. इंदिरा गाँधी इस फैसले खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई और स्टे प्राप्त किया। इसके बाद उन्होंने बिना कैबिनेट की बैठक बुलाए, राष्ट्रपति से आपातकाल लगाने की अनुशंसा कर डाली. तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर दिए और इस तरह देश में पहला आपातकाल लागू हो गया. इसके बाद ही देश में कई संवैधानिक संशोधन हुए. इसमें आर्टिकल 39 भी था.
39वां संविधान संशोधन क्यों किया गया
इंदिरा गांधी के चुनाव को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने रद्द कर दिया था, ऐसे में इंदिरा गांधी का पद पर बने रहना मुश्किल था. पद पर बने रहने के लिए अब उन्हें ऐसी व्यवस्था करनी थी जिससे कोर्ट के फैसले का उनके पद पर बने रहने या न बने रहने पर कोई असर न पड़े.
इस वजह से तत्कालीन सरकार के द्वारा 39वा संविधान संशोधन लाया गया. इस संशोधन के जरिए अब न्यायपालिका से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त व्यक्ति के चुनाव की जांच करने का अधिकार ही छीन लिया गया था.
कोर्ट ने क्यों निरश्त 39वा सशोधन
संविधान के 39वे संशोधन को इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (AIR 1975 SC 2299) मामले में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. जब इस पर सुनवाई हुई तो कोर्ट ने केसवानंद भारती बनाम केरल सरकार मामले में प्रतिपादित मूल संरचना सिद्धांत का उपयोग किया और 7 नवंबर 1975 को इस संशोधन को निरस्त कर दिया .
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार ये सशोधन कोर्ट की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को सीमित कर रहा है. जबकि ये संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है.
क्या था केसवानंद भारती केस
साल था 1969, केरल की वामपंथी सरकार दो भूमिसुधार कानून लाती है. इन कानूनों के तहत वो जमींदारों और मठों के पास मौजूद जमीन को सरकार अपने अधीन लेना शुरू करती है. इसकी चपेट में केरल में मौजूद इडनीर मठ की करीब 400 एकड़ भूमि भी आ जाती है. इतना ही नहीं सरकार के द्वारा इडनीर मठ के प्रबंधन पर भी कई प्रकार की पाबंदियां लगाई गई. जब ये सब हो रहा था, तब इडनीर मठ के प्रमुख थे केसवानंद भारती. अब उनके पास दो रस्ते थे. पहला सरकार की हर बात को चुपचाप मान लें या फिर दूसरा इसके खिलाफ न्यायिक सहायता लें. उन्हौने दूसरा रास्ता चुना . केसवानंद भारती, सरकार के खिलाफ केरल हाई कोर्ट पहुंच गए. उन्हौने सरकार के इस फैसले ने को संविधान के अनुच्छेद 26 का उलंघन बताया.
इस मामले में जब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई तो इस मामले की सुनवाई के लिए 13 जजों की बेंच बैठी।इस मामले की सुनवाई के दौरान सभी 13 जज एकमत नहीं थे. लेकिन बावजूद भी मामला 7:6 के अंतर से केसवानंद भारती के पक्ष में चला गया. कोर्ट ने कहा कि संविधान का मूल ढांचा अनुल्लंघनीय है और संसद भी इसमें बदलाव नहीं कर सकती है.
अदालत ने कहा कि संसद अपने संशोधन के अधिकार का इस्तेमाल कर संविधान की मूल भावना को बदल नहीं सकती है. इतना ही नहीं कोर्ट ने ये भी कहा कि, संसद के पास संविधान में संसोधन का अधिकार तो है लेकिन ये अधिकार असीमित नहीं है.
इस मामले में कोर्ट ने ये भी कहा कि संविधान का संसोधन तभी तक मान्य होगा जब तक संविधान की प्रस्तावना के मूल ढाँचे में बदलाव नहीं करता और ये संसोधन संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ नहीं हो सकता. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को आगे चलकर 'संविधान की मूल संरचना सिद्धांत' भी कहा गया