Indian Contract Law के तहत शून्य और शून्यकरणीय अनुबंध क्या है?
नई दिल्ली: भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के तहत संविदाओं (Contracts) को कैसे बनाए, निष्पादन कैसे करें और उसमें कैसे बदलाव कैसे करें और उससे संबंधित सामान्य सिद्धांतों और क्षतिपूर्ति एवं गारंटी, जमानत और गिरवी, तथा अभिकरण (एजेंसी) जैसी विशेष प्रकार की संविदाओं से संबंधित नियम निर्धारित किए गए है. इस अधिनियम के तहत शून्य (Void) और शून्यकरणीय अनुबंध (voidable कॉन्ट्रैक्ट) के बारे में भी बताया गया हैं. आईए जानते हैं क्या होता है शून्य और शून्यकरणीय अनुबंध. दोनों को कौन से नियम एक -दूसरे से अलग करते हैं.
शून्य (Void) और शून्यकरणीय अनुबंध(Voidable Contract) को समझने से पहले हमें अनुबंध को समझना होगा. अनुबंध को अंग्रेजी में कॉन्ट्रैक्ट कहते हैं. हर अनुबंध में दो या दो से ज्यादा पक्षकार होते हैं. जिनके बीच कई तरह के कानूनी समझौते होते हैं. जब भी कोई अनुबंध होता है, तब उसमें नुकसान और भरपाई का जिक्र जरुर होता है और किसी भी नुकसान की भरपाई तब ही की जा सकती है, जब उस अनुबंध को कानून के दायरें में रह कर किया गया हो. साथ ही अनुबंध के तहत जब भी को कोई नियम का जिक्र किया जाता है तो उसका पालन करना हर पक्ष के लिए अनिवार्य हो जाता है.
शून्य अनुबंध
नाम से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह किस तरह का अनुबंध है. वह अनुबंध जो कानूनी रुप से वैध नहीं है अर्थात सही नहीं है या यू कहें कि भारतीय संविदा अधिनियम (Indian Contract Act) 1872 के नियमों के तहत नहीं किया गया है वह अनुबंध शुन्य हो जाता है. भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 2( g) के अनुसार “जिस अनुबंध को कानून द्वारा लागू न किए जा सकता है उस समझौते को शून्य कहा जाता है.
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दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो शून्य अनुबंध, को समझौते के रूप में भी जाना जाता है, वास्तव में यह अनुबंध नहीं होता है, शून्य अनुबंध कानून के द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है. यानि कि यह शुरुआत से ही शून्य है और अनुबंध नहीं बन सकता है. एक समझौता जो शून्य है, इसमें किसी भी पार्टी को समझौते के लिए मजबूर नहीं करता. यह आंतरिक रूप से अवैध और लागू करने योग्य नहीं है और अगर इसका उल्लंघन किया जाता है तो घायल पार्टी के पास कोई कानूनी सहारा नहीं होता है क्योंकि इस तरह के अनुबंध कानून के दायरे से बाहर होते हैं.
अधिनियम की धारा 10 के अनुसार, एक समझौते को लागू करने योग्य होने के लिए कानूनी अनुबंध के सभी तत्वों को पूरा करना चाहिए. यदि इन पूर्वापेक्षाओं (Prerequisites) को पूरा नहीं किया जाता है तो समझौता शून्य है.
शून्यकरणीय अनुबंध
यह अनुबंध शून्य अनुबंध से पूरी तरह से अलग होता है. इसमें अनुबंध को कानून के नियम के साथ ही बनाया जाता है. इसमें कोई नुकसान होने पर पार्टियां कानून के पास जा कर अपना हक मांग सकते हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो “वह अनुबंध जो कि उसके पक्षकारों में से एक या अधिक के विकल्प पर विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो, लेकिन अन्य के विकल्प पर नहीं, तब वह शून्यकरणीय संविदा कहलाती है.” इसके बारे में भारतीय संविदा अधिनियम ,1872 की धारा 2(i) में बताया गया है.
दोनों के बीच अंतर
दोनों ही अनुबंध एक दूसरे से अलग होते हैं. एक कानून के दायरे में आते हैं तो दूसरा कानूनी नियम से बाहर आते हैं. इस तरह के कई अंतर हैं तो दोनों को एक दूसरे अलग बनाते हैं.
1.शून्य अनुबंध को भारतीय संविदा अधिनियम ,1872 की धारा 2( g ) में परिभाषित किया गया है. वहीं शून्यकरणीय अनुबंध को भारतीय संविदा अधिनियम ,1872 की धारा 2(i) परिभाषित किया गया है.
2. जब कोई अनुबंध विधि द्वारा प्रवर्तित नहीं की सकती तो वह शून्य अनुबंध कहलाती. वहीं जब अनुबंध पीड़ित पक्षकार की इच्छा पर प्रवर्तित होती है तब शून्यकरणीय अनुबंध होती है. (धारा 19 तथा 19 अ)
3. शून्य अनुबंध तब तक वैध बनी रहती है जब तक कि वह प्रवर्तन योग्य नहीं रहती है. बात करें शून्यकरणीय अनुबंध की तो यह तब तक वैध रहती है जब तक कि पीड़ित पक्षकार उसे शून्य घोषित नहीं करा देता है.
4. शून्य अनुबंध को विधि नहीं बना सकती है. शून्यकरणीय अनुबंध को बनाना पक्षकारों की इच्छा पर निर्भर करता है.
5. इसमें पक्षकारों को क्षतिपूर्ति का अधिकार नहीं मिलता है.अर्थात अगर कोई नुकसान होता है तो इसमें शामिल पक्ष मुआवजा नहीं मांग सकते. शून्यकरणीय अनुबंध के तहत अगर किसी पक्ष को कोई नुकसान होता है तो वह क्षतिपूर्ति मांग सकते हैं.
6. शून्य अनुबंध भरोसेमंद नहीं होता है. वहीं शून्यकरणीय अनुबंध में भरोसा होता है.
7. शून्य अनुबंध में जो नियम बनाए जाते हैं उस नियम से या शर्त से कोई भी पक्ष आसानी से मुकर सकता है. वहीं शून्यकरणीय अनुबंध में हर पक्ष का नियम का मानना जरुरी है. नियम का उल्लंघन होने की दशा में पक्षकार कानून का सहारा ले सकते हैं.