हाईकोर्ट के Additional और Confirmed जज के पद और उनकी न्यायिक शक्तियों में क्या अंतर है? जानिए
नई दिल्ली: भारत की न्यायपालिका देश की विधायिका और कार्यपालिका से स्वतंत्र है और जनता अपनी समस्याओं के समाधान और न्याय पाने हेतु न्यायपालिका का दरवाजा ही खटखटाती है। भारतीय संविधान में निचली अदालतों (Lower Courts) का प्रावधान हैं जिनके फैसले से यदि शख्स संतुष्ट नहीं है तो वो उच्च न्यायालय जाता है।
अन्य अदालतों की तरह देश के किसी भी उच्च न्यायालय (High Court) में अधिवक्ता आपकी तरफ से आपका केस लड़ते हैं और न्यायाधीश उस केस में फैसला सुनाते हैं। यह बात शायद आपको पता हो कि एक न्यायाधीश की नियुक्ति कॉलेजियम की अनुशंसा और फिर देश के राष्ट्रपति की मंजूरी से होती है। क्या आपको पता है कि उच्च न्यायालय के हर न्यायाधीश की दो शपथ होती हैं?
उच्च न्यायालय के हर न्यायाधीश की होती हैं दो शपथ
आपकी जानकारी के लिए बता दें किसी भी अधिवक्ता को यदि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश (High Court Judge) के रूप में नियुक्त किया जाता है तो उनकी दो शपथ होती हैं। पहली बार में वो न्यायाधीश हाईकोर्ट के 'एडिश्नल न्यायाधीश' होते हैं और दो साल तक बतौर एडिश्नल जज काम करने के बाद उनका 'कन्फर्मेशन' होता है और फिर वो बतौर 'कन्फर्म्ड जज' शपथ लेते हैं।
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Additional और Confirmed जज के पद में अंतर?
अगर आप इस बारे में नहीं जानते हैं तो बता दें कि एक न्यायाधीश को पहले एडिश्नल जज के रूप में शपथ दिलाई जाती है और फिर उन्हें दो साल का समय दिया जाता है जिसके बाद ही उन्हें कन्फर्म किया जाता है। इस दो साल भीतर जज के काम, उनके मामलों, फैसलों और कन्डक्ट के आधार पर उन्हें 'कन्फर्म' किया जाता है।
यह दो साल की अवधि खुद जज के लिए भी होती है ताकि वो समझ सकें कि उनका काम क्या है, यह किस तरह होता है और उन्हें इसे करने में अच्छा लग रहा है या नहीं। बता दें कि एक एडिश्नल जज चाहे तो पर्मानेंट होने से पहले इस्तीफा दे सकता है और अपने पेरेंट कोर्ट में ही वापस, बतौर वकील प्रैक्टिस कर सकता है। अपने ही कोर्ट में प्रैक्टिस करने की सुविधा रिटायरमेंट के बाद नहीं होती है।
इस दो साल के अंदर, यदि जज को भी कोई दिक्कत नहीं होती है और कॉलेजियम भी उनके काम से संतुष्ट है, तो उनके कन्फर्म होने की अधिसूचना जारी कर दी जाती है और वो तब, बतौर कन्फर्म्ड जज शपथ लेते हैं।
क्या इनकी न्यायिक शक्तियों में भी है कोई फर्क?
पद में अंतर क्या है, यह तो समझा जा चुका है लेकिन आपको बता दें कि एक एडिश्नल और कन्फर्म्ड जज की न्यायिक शक्तियों, काम और जिम्मेदारियों में कोई अंतर नहीं होता है। हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय (Allahabad High Court) की लखनऊ पीठ (Lucknow Bench) में एक मामला सामने आया था जिसकी सुनवाई न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार उपाध्याय (Justice Devendra Kumar Upadhyaya) और जस्टिस सुभाष विद्यार्थी (Justice Subhash Vidyarthi) की पीठ ने की थी।
इसके तहत इलाहाबाद उच्च न्यायालय की इस पीठ ने स्पष्ट किया था कि एक एडिश्नल जज और एक कन्फर्म्ड जज को किस संवैधानिक प्रावधान के तहत नियुक्त किया जा रहा है, इसका उनके काम और जिम्मेदारियों पर कोई असर नहीं पड़ता है। एडिश्नल हो या कन्फर्म्ड, हर न्यायाधीश की जिम्मेदारी और उनके काम बराबर होते हैं।