IPC की धारा 34 के तहत सामान्य आशय, और धारा 149 के अंतर्गत सामान्य उद्देश्य में क्या है अंतर? जानिये
नई दिल्ली: भारतीय समाज में अपराध समय के साथ-साथ तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। एक अपराध को मूक दर्शक की भाँति घटित होता देख और उसका विरोध न करना भी खुद में एक अपराध है । ऐसे अपराध को सामूहिक रुप से गठित करने में समाज के लोगों का कुछ न कुछ योगदान होता है।
बढ़ते अपराध की स्थितियों के सन्दर्भ में आपको बता दे कि आपराधिक विधि में सामान आशय (Common Intention) का महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्य आशय के बगैर आपराधिक विधि की कल्पना मुश्किल है क्योंकि ऐसे अपराध जो बहुत सारे व्यक्तियों द्वारा मिलकर किए जाते हैं उन अपराधों के अंतर्गत अपराधियों को दंडित किया जाना मुश्किल हो जाता है।
सामान्य आशय ऐसे अपराधियों को दंडित करने में सहायता करता है जो मिलकर किसी एक कार्य को करते हैं।
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IPC Sec 34
आईपीसी की धारा 34 सामान्य आशय का उल्लेख करती है। अनेक अपराध तत्कालिक रूप से नहीं होते हैं अपितु पूर्व योजना के अनुसार किए जाते हैं तथा उन अपराधों में अनेक लोग भी शामिल होते हैं। इस धारा के अनुसार जब दो या दो से अधिक व्यक्ति सामान्य आशय के तहत किसी कार्य को करने के लिए अपनी सहमति देते हैं, तो सह-अभियुक्त (co accused ) समान आपराधिक दायित्व के हकदार होते हैं, जैसा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 34 में बताया गया है। ऐसे मामले में हर एक सदस्य उस कार्य के लिए उत्तरदायी है, इस तरह से कि वह कार्य पूरी तरह से उन्होंने ही किया है।
सामान्य आशय का मतलब पूर्व निर्धारित योजना और योजना के साथ आगे बढ़ने के लिए एकजुट होकर काम करना है। सामान्य आशय अपराध करने से पहले उभरता है, लेकिन दोनों के बीच समय का अंतराल लंबा नहीं होना चाहिए। यह अचानक हो सकता है. ये धारा संयुक्त दायित्व की धारणा को प्रस्तुत करती है जो नागरिक और आपराधिक कानून दोनों में मौजूद है।
यह एक ऐसे परिदृश्य को संबोधित करता है जहां किसी अपराध में एक खा़स आपराधिक इरादा या समझ शामिल होती है और यह कई व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। जो लोग ऐसी समझ या उद्देश्य के साथ कार्य में शामिल होते हैं, उनमें से प्रत्येक उसी तरह से जिम्मेदार होगा जैसे कि वह आशय या समझ अकेले उसके द्वारा पूरा किया गया हो।
बरेंद्र कुमार घोष बनाम किंग एम्परर
इस मामले में सामान्य आशय ( common intention ) के समर्थन में किसी अन्य व्यक्ति के कार्य के लिए अधिकरण ( Tribunal ) द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को सजा सुनाई गई थी।
मामले के तथ्य यह हैं कि 3 अगस्त, 1923 को हथियारबंद लोगों का एक समूह पुलिस स्टेशन में घुस गया। उन्होंने पोस्टमास्टर से नकदी मांगी जहां उन्होंने नकदी की गिनती की। उन्होंने पिस्तौल से पोस्टमास्टर पर गोली चला दी, जिससे पोस्टमास्टर की मौके पर ही मौत हो गई. बिना नकदी लिए सभी आरोपी भाग गए।
पुलिस पोस्ट ऑफिस के बाहर खड़े गार्ड बरेंद्र कुमार घोष को पकड़ने में सफल रही। बरेंद्र ने तर्क दिया कि वह केवल एक गार्ड के रूप में खड़ा था लेकिन अदालत ने उसे आईपीसी, 1860 की धारा 302 R/W धारा 34 के तहत हत्या के लिए दोषी ठहराया। उसके बाद जब उसने प्रिवी काउंसिल में अपील की तो उसकी अपील खारिज कर दी गई।
धारा 149 में सामान्य उद्देश्य
इस धारा में बताया गया है कि जब पांच या पांच से अधिक व्यक्ति एक सामान्य उद्देश्य की निरंतरता में, एक गैरकानूनी कार्य करते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से उत्तरदायी होता है, भले ही सह-अभियुक्तों के बीच पहले से ही मनमर्जी हुई हो या नहीं।
हालाँकि, इसमें सभी की सहमति आवश्यक होती है क्योंकि गैरकानूनी सभा के प्रत्येक सदस्य ने सामान्य उद्देश्य (Common Object) को प्राप्त करने के लिए अपनी सहमति दी है। इसके अलावा, जब गैरकानूनी सभा के किसी भी सदस्य ने उस सभा के सामान्य उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए कोई अपराध किया है तो उस सभा का प्रत्येक सदस्य उस अपराध का दोषी है।
इसे सभा की प्रकृति, व्यवहार के हथियारों, कार्रवाई स्थल पर या उससे पहले पहचाना जा सकता है। इसके अलावा, यदि यह पता चलता है कि अन्य सदस्यों को इस तथ्य के बारे में पता नहीं है, तो अपराध के लिए उनका दायित्व उत्पन्न नहीं होता है।
यूनिस बनाम मध्य प्रदेश राज्य
इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि गैरकानूनी जमावड़े के हिस्से के रूप में अभियुक्त की उपस्थिति सजा सुनाए जाने के लिए पर्याप्त थी। तथ्य यह है कि अभियुक्त गैरकानूनी सभा का भागीदार था और घटना स्थल पर उसकी उपस्थिति उसे उत्तरदायी ठहराने के लिए पर्याप्त है, भले ही उस पर किसी प्रत्यक्ष कार्य का आरोप न हो।