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Judicial Review क्या है? जानिये किस मामले से पहली बार ये आया अस्तित्व में

Judicial Review

भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं किया गया है लेकिन अनुच्छेद 13 के तहत सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति दी गई है कि वह कानूनों की समीक्षा कर सकता है.

Written By My Lord Team | Published : July 14, 2023 5:47 PM IST

नई दिल्ली: कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद को है, और भारतीय संविधान के तहत के अनुच्छेद 12 के अनुसार यदि बनाया गया कानून संविधान के खिलाफ है तो सुप्रीम कोर्ट उसकी समीक्षा (Review) कर सकता है. इस संवैधानिक व्यवस्था को न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) कहा जाता है, आइये समझते है इसे विस्तार से।

यहां बता दें की भारतीय संविधान में न्यायिक समीक्षा शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया गया है, लेकिन अनुच्छेद 13 के तहत सुप्रीम कोर्ट को यह शक्ति दी गई है कि वह कानूनों की समीक्षा कर सकता है। इससे सम्बंधित कानून की संवैधानिकता की जांच होती है।

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न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत की उत्पत्ति एंव विकास अमेरिका में मार्बरी बनाम मेडिसन में वर्ष 1803 में पहली बार हुआ। जॉन मार्शल ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया था जो उस समय अमेरिका के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश थे. अतः वहां से इसकी शुरुआत मानी जाती है ।

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सामान्य रूप से न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह कार्यपालिका व विधायिका के उन कानूनों तथा आदेशों को असंवैधानिक घोषित कर सकती है जो संविधान के आदर्शों के विपरीत है या उसके विरुद्ध, क्योंकि मान लेते हैं कि कोई बहुमत की सरकार तानाशाही का रूप लेती है तो इससे बचने के कई अवसर (जैसे: न्यायिक समीक्षा का अधिकार, रिट का प्रावधान- Provisison of Writs) होने चाहिए |

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न्यायिक समीक्षा सुप्रीम कोर्ट की असाधारण शक्ति है जो कार्यपालिका के मनमाने रवैय से बचाती है एंव भारत में न्यायिक समीक्षा का मूल स्रोत संविधान का अनुच्छेद 13 है।

मूल अधिकारों से असंगत या उनकी अल्पीकरण करने वाली विधियां

संविधान के अनुच्छेद 13 में यह कहा गया है कि राज्य ऐसी कोई भी विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग ( 3) द्वारा प्रदत अधिकारों को छीनती है या कम करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई हर एक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी यानी ऐसा कोई कानून जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है या मूल अधिकारों में कमी करता है तो उसे रद्द किया जाएगा |

न्यायिक समीक्षा के आधार

न्यायालय किसी भी कानून को रद्द/शून्य घोषित आगे बतायें गये आधारों पर कर सकती है; पहला, वह मूल अधिकारों का उल्लंघन करता हो; दूसरा, विधायिका द्वारा उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर बनाया गया हो (जैसे कि कोई राज्य सरकार संघ सूची के विषय पर कानून बनाएं, क्योंकि संघ सूची पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है); और तीसरा, संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत हो (Againt the Basic Structure)

Judicial review से जुड़े मामले

  • आई आर कोहिलोवाद, 2007 बनाम तमिलनाडु राज्य: इसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि न्यायिक समीक्षा संविधान के बेसिक ढांचे का हिस्सा है तथा इसी केस में सुप्रीम कोर्ट ने बोला कि 1951 में भारतीय संविधान में जो नौवीं अनुसूची (9th Schedule) जोड़ी गई है जिसमें व्यवस्था की गई है कि इसमें जो भी कानून जोड़े जाएंगे उनका Judicial रिव्यु न्यायिक समीक्षा) नहीं किया जाएगा.
  • गोलकनाथ केस (1967) में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक समीक्षा कि प्रणाली को अपनाया था।
  • न्यायिक समीक्षा की प्रक्रिया का समर्थन करने संबंधी कुछ विशिष्ट प्रावधान
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 372 (1) भारतीय संविधान के लागू होने से पूर्व बनाए गए किसी कानून की न्यायिक समीक्षा से संबंधित प्रावधान करता है।
  • अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 सुप्रीम कोर्ट एंव उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों का रक्षक एवं गारंटीकर्त्ता की भूमिका प्रदान करते हैं।
  • अनुच्छेद 251 और अनुच्छेद 254 में कहा गया है कि संघ और राज्य कानूनों के बीच असंगतता के मामले में राज्य कानून शून्य हो जाएगा।
  • अनुच्छेद 246 (3) राज्य सूची से संबंधित मामलों पर राज्य विधायिका की अनन्य शक्तियों को सुनिश्चित करता है। अनुच्छेद 137 सुप्रीम कोर्ट को उसके द्वारा सुनाए गए किसी भी निर्णय या आदेश की समीक्षा करने हेतु एक विशेष शक्ति प्रदान करता है, इत्यादि ।