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Extra-judicial Confession क्या है और इसको स्वीकार करने के साक्ष्य अधिनियम में क्या हैं आधार

सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति के तहत दिया गया बयान एक कमजोर साक्ष्य है और इसे केवल तब स्वीकार्य बनाया जा सकता है, जब इससे पुख्ता सबूतों द्वारा प्रमाणित किया जाता है.

Written By My Lord Team | Published : March 3, 2023 4:07 AM IST

नई दिल्ली: भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में संस्वीकृति (Confession) की कोई परिभाषा प्रदान नहीं की गई है. लेकिन, “संस्वीकृति (Confession)” शब्द पहली बार इस अधिनियम के दूसरे अध्याय के अंतर्गत धारा 24 के तहत देखने को मिलता है. संस्वीकृति से आम तौर पर मतलब होता है कि अपराध के आरोपी व्यक्ति द्वारा किसी भी समय दिया गया बयान जिसमें वह या तो आरोपों को स्वीकार कर लेता है या ऐसा सुझाव देता है कि उसने वह अपराध किया है.

वहीं, अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति (Extra-judicial Confession), संस्वीकृति (Confession) का एक प्रकार है. एक अतिरिक्त-न्यायिक संस्वीकृति का अर्थ “न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के अलावा अन्य किसी व्यक्ति के साथ बातचीत के दौरान अपराध के आरोपी व्यक्ति द्वारा अपराध की स्वतंत्र और स्वैच्छिक स्वीकारोक्ति” से है.

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उदाहरण के लिए, एक आरोपी व्यक्ति ने अपनी मां को बताया कि उसने अपनी बेटी की हत्या कर दी, जो अपने पति को छोड़कर अपने चाचा के साथ व्यभिचार में रहती थी। इसे भगवान दास बनाम दिल्ली राज्य के मामले में एक अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति माना गया था, और भारतीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्णय दिया गया था कि इस पर भरोसा किया जा सकता है.

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अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति की प्रासंगिकता और स्वीकार्यता

अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति की प्रासंगिकता (Relevance) और स्वीकार्यता (Admissibility) और तथ्यों की खोज भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 24 और धारा 27 द्वारा नियंत्रित होती है.

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धारा 24 एक न्यायिक अधिकारी के अलावा किसी अन्य प्राधिकारी को दी गई संस्वीकृति की स्वीकार्यता और उनकी स्वीकार्यता के लिए निर्धारित शर्तों से संबंधित है. वहीं, धारा 27 में अभियुक्त पुलिस हिरासत में दी गई जानकारी के परिणामस्वरूप खोजे गए तथ्य की स्वीकार्यता से संबंधित है.

सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति के तहत दिया गया बयान एक कमजोर साक्ष्य है और इसे केवल तब स्वीकार्य बनाया जा सकता है, जब इससे पुख्ता सबूतों द्वारा प्रमाणित किया जाता है.

सुप्रीम कोर्ट ने अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति के संबंध में निम्नलिखित सिद्धांत निर्धारित किए हैं:

· जहां एक अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति संदिग्ध परिस्थितियों से घिरी हुई है, तो उस बयान की विश्वसनीयता भी कम हो जाती है और अपना महत्व खो देती है;

· जहां अदालत आम तौर पर किसी अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति पर कोई निर्भरता दिखती है और उसके आधार पर निर्णय देती है तो उसे पहले एक स्वतंत्र विश्वसनीय सबूत की तलाश करनी होगी, जो उस संस्वीकृति को प्रमाणित करता हो;

· एक अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति, अगर स्वैच्छिक है तो अदालत द्वारा उस पर भरोसा किया जा सकता है.

· एक सजा अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति पर आधारित हो सकती है यदि गवाह जिसकी समक्ष वह संस्वीकृति दी गई थी, उसकी विश्वसनीयता एक कठोर परीक्षण के आधार पर प्रमाणित हो गई है.

· यह साक्ष्य किसी भी सामग्री विसंगतियों (Material Discrepancies) और निहित अनुचितियों (Inherent Improbabilities) से पीड़ित नहीं होना चाहिए.

किशन लाल बनाम राजस्थान राज्य के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एक अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति पर भरोसा करने से पहले, न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह स्पष्ट और साफ-जाहिर करती है कि आरोपी ने ही अपराध को अंजाम दिया है.

इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अतिरिक्त न्यायिक संस्वीकृति पर अदालतों द्वारा आम तौर पर भरोसा नहीं किया जाता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है इस तरह के साक्ष्य को पूरी तरह से अस्वीकार किया जाए जबकि इसे उस व्यक्ति द्वारा दिया गया है जिसके पास झूठे सबूत देने का कोई कारण ही नहीं है और बाकी परिस्थितियों भी उस साक्ष्य को प्रमाणित करने का कार्य कर रही हों.

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