आर्बिट्रेशन क्या है, और भारतीय कानून में इसकी कितनी है प्रासंगिकता? जानिए
अनन्या श्रीवास्तव
आर्बिट्रेशन, जिसे 'माध्यस्थम' भी कहा जाता है एक कॉन्सेप्ट है जिसके तहत एक विवाद को बिना अदालत के चक्कर काटे सुलझाया जा सकता है। भारत में 'ऑल्टरनेटिव डिस्प्यूट रिड्रेसल' (ADR) का एक प्रकार 'आर्बिट्रेशन' या 'माध्यस्थम' है। आर्बिट्रेशन में विवाद में फंसे दोनों पक्षों के लोग मिलकर, आपसी सहमति से, एक मध्यस्थ (आर्बिट्रेटर) को चुनते हैं जो उस डिस्प्यूट को सुलझाता है।
आर्बिट्रेशन की सुनवाई सार्वजनिक रिकॉर्ड की बात नहीं होती और यहां दिया गया फैसला दोनों पार्टियों पर उसी तरह लागू किया जाता है जिस तरह एक न्यायालय का आदेश लागू होता है। भारत में आर्बिट्रेशन के लिए क्या कानून है और एडीआर के इस प्रकार की क्या प्रासंगिकता है, आइए जानते हैं...
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आर्बिट्रेशन को लेकर भारतीय कानून
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि भारत में आर्बिट्रेशन की शुरुआत पंचायतों से हुई थी, वो भी आर्बिट्रेशन ही है। भारत में आर्बिट्रेशन को लेकर कानूनों की शुरुआत ब्रिटिश काल से हो गई थी और इनमें Code of Civil Procedure Act 1859, Indian Arbitration Act 1899, Arbitration (Protocol and Convention) Act 1937 और Arbitration Act of 1940 शामिल हैं।
अब, भारत में जिस कानून के तहत आर्बिट्रेशन होते हैं, वो 'माध्यस्थम और सुलह अधिनियम, 1996' (The Arbitration and Conciliation Act, 1996) है। यह कानून पहली बार 25 जनवरी, 1996 में लागू कीय गया था और इसके तहत आंतरिक और अंतर्राष्ट्रीय बिजनेस आर्बिट्रेशन होता है और विदेशी पंचायती फैसले (foreign arbitral decisions) लिए जाते हैं।
यह कानून सुलह के भी नए नियम-कानून लेकर आता है; बता दें कि 'माध्यस्थम और सुलह अधिनियम, 1996' संयुक्त राष्ट्र मॉडल लॉ (UN Model Law) पर आधारित है।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि 'माध्यस्थम और सुलह अधिनियम, 1996' में सबसे पहला संशोधन 2003 में हुआ था फिर 2015 में संशोधन हुआ था और फिर 2019 में 'माध्यस्थम और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2019' आया।
क्यों और कैसे किया जाता है आर्बिट्रेशन
बता दें कि भारत में आर्बिट्रेशन का इस्तेमाल आमतौर पर किसी बिजनेस डिस्प्यूट या यूं कहें कि किसी अनुबंध के तहत उत्पन्न होने वाले विवादों को सुलझाने के लिए होता है। आर्बिट्रेशन की प्रक्रिया काफी विस्तृत होती है जिसमें सबसे पहले किसी भी एग्रीमेंट में एक 'आर्बिट्रेशन क्लॉज' होता है जिसमेंयह स्पष्ट किया जाता है कि यदि पार्टियों के बीच डिस्प्यूट होता है तो उसे सुलझाने के लिए आर्बिट्रेशन का इस्तेमाल किया जाएगा।
विवाद होने पर जिसने आर्बिट्रेशन करवाने का फैसला लिया है, वो दूसरी पार्टी को एक 'आर्बिट्रेशन नोटिस' भेजती है जिसके बाद दोनों पार्टी एक आर्बिट्रेटर' को, आपसी सहमति से नियुक्त करती हैं। इसके बाद एक 'स्टेटमेंट ऑफ क्लेम' तैयार किया जाता है जिसमें दोनों पार्टियों के बीच के विवाद के बारे में लिखा होता है और ऐसा क्या हुआ कि विवाद हुआ, इस बारे में बताया जाता है।
दोनों पार्टियों के पक्षों की हियरिंग होती है जिसके बाद फैसला- 'अवॉर्ड' सुनाया जाता है; इस अवॉर्ड को दोनों पार्टियों को मानना ही होता है।
भारत में 'माध्यस्थम' की प्रासंगिकता
भारत में माध्यस्थम या आर्बिट्रेशन के मामले काफी बढ़ गए हैं और अपने विवादों को सुलझाने के लिए कई लोग इस प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हैं।
भारतीय न्यायिक प्रणाली के लिए माध्यस्थम काफी फायदेमंद साबित हो सकता है क्योंकि इससे न्यायालयों और न्यायाधीशों के साथ काम बांटा जाता है और उनका भार कम होता है। यह एक ऐसा प्रोसेस है जिससे विवाद का जल्दी और सही समाधान प्राप्त किया जा सकता है।