India Act 1935 के ऐसे कौन से प्राविधान हैं जो आज भी भारतीय संविधान में शामिल हैं
नई दिल्ली: ब्रिटिश भारत में एक जिम्मेदार सरकार प्रदान करने हेतु कई अधिनियमो को पारित किया गया उनमे से एक भारत सरकार अधिनियम 1935 काफी महत्वपूर्ण था. इसके तहत ब्रिटिश भारत में गवर्नर के प्रांतों और मुख्य आयुक्त के प्रांतों के साथ-साथ स्वेच्छा से इसमें शामिल होने वाले किसी भी भारतीय राज्य से बने एक भारतीय संघ के गठन का आह्वान किया।
स्वतंत्रता के बाद जिम्मेदार सरकार प्रदान करने के उद्देश्य के साथ भारतीय संविधान 26 जनवरी सन् 1950 को प्रभावी हो गया, जिसका मूल आधार भारत सरकार अधिनियम 1935 को माना जाता है. कई ऐसे प्राविधान को नए संविधान में शामिल इसलिए किया गया क्यों कि वो सारे नियम भारत को सशक्त करते थे. आइये जानते है आखिर वो कौन से प्रविधान थे।
भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची
भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों के विभाजन से संबंधित है। यह भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूचियों का एक हिस्सा है ।
Also Read
- भारत के सर्वोच्च पदों पर आज हाशिये पर पड़े समुदायों का प्रतिनिधित्व: लंदन में बोले CJI गवई
- ब्रिटिश नागरिक होने से कैसे छिन सकती है Rahul Gandhi की नागरिकता? जानें संविधान में Dual Citizenship को लेकर क्या है प्रावधान
- 'देश के संविधान ने समय के साथ बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाई', Constitution Day पर बोले CJI Sanjiv Khanna
संघ और राज्य के बीच शक्तियों का विभाजन सातवीं अनुसूची में उल्लिखित तीन प्रकार की सूची के माध्यम से अधिसूचित किया जाता है. प्रत्येक सरकार के अधीनस्थ विषयों के लिए तीन सूचियाँ थीं –संघीय सूची (केंद्र) प्रांतीय सूची (प्रांत) समवर्ती सूची (दोनों) जो कि आज भी भारतीय संविधान के अनुसूची 7 में निर्दिष्ट है।
इसके तहत यह निश्चित किया गया कि केंद्र और प्रान्तों में विरोध होने पर केंद्र का ही कानून मान्य होगा. प्रांतीय विषयों में प्रान्तों को स्वशासन का अधिकार था और प्रान्तों में उत्तरदायी शासन की स्थापना की गई थी अर्थात् गवर्नर व्यवस्थापिका-सभा के प्रति उत्तरदायी होकर भारतीय मंत्रियों की सलाह से कार्य करेंगे.
इसी कारण से यह कहा जाता है कि इस अधिनियम के द्वारा प्रांतीय स्वशासन (Provincial Autonomy) की स्थापना की गई.
प्रांतीय स्वायत्तता
भारत सरकार अधिनियम 1935 ने प्रांतों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की. प्रांतीय स्तरों पर द्वैध शासन को समाप्त कर दिया गया. राज्यपाल कार्यपालिका का प्रमुख होता था, और उन्हें सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद थी.
मंत्री प्रांतीय विधायिकाओं के प्रति उत्तरदायी थे जो उन्हें नियंत्रित करती थी. विधायिका मंत्रियों को हटा भी सकती थी. हालांकि, राज्यपालों के पास अभी भी विशेष आरक्षित शक्तियों को बरकरार रखा गया था. ब्रिटिश अधिकारी अभी भी एक प्रांतीय सरकार को निलंबित कर सकते थे.
द्विसदनीय विधानमंडल (Bicameral Legislature)
इस अधिनियम के तहत एक द्विसदनीय संघीय विधायिका की स्थापना की गई थी जो कि संघीय विधानसभा (निचला सदन) और राज्य परिषद (उच्च सदन) थे. आज भी ये सदन लोक सभा और राज्य सभा के रुप में स्थापित है.
संघीय सभा का कार्यकाल पाँच वर्ष का होता था. दोनों सदनों में देशी रियासतों के प्रतिनिधि भी थे. रियासतों के प्रतिनिधियों को शासकों द्वारा मनोनीत किया जाना था न कि निर्वाचित किया जाना था. ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों को निर्वाचन द्वारा चुना जाना था.और कुछ को गवर्नर-जनरल द्वारा मनोनीत किया जाना था.
वर्तमान में भारत के 6 राज्यों में द्विसदनीय विधानमंडल है पहले ये आँकड़ा 7 राज्यों का था लेकिन जम्मू कशमीर प्रदेश के केन्द्र शासित प्रदेश बनने के बाद ये 6 राज्य हो गए। वे राज्य जिनमें द्विसदनीय विधानमंडल है - आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, तेलंगाना, कर्नाटक
संघीय न्यायालय
प्रांतों के बीच के विवाद और केंद्र और प्रांतों के बीच के विवादों के समाधान के लिए दिल्ली में एक संघीय अदालत की स्थापना की गई थी. इसमें 1 मुख्य न्यायाधीश होना था और अधिकतम 6 न्यायाधीश होने थे. जिसकों कि आज हम सुप्रीन कोर्ट के नाम से जानते है । भारतीय संविधान के भाग V (संघ) और अध्याय 6 में सर्वोच्च न्यायालय के प्रावधान (संघ न्यायपालिका) की अनुमति है। इसमें अनुच्छेद 124 से 147 तक शामिल हैं जो सर्वोच्च न्यायालय के संगठन, स्वतंत्रता, अधिकार क्षेत्र, शक्तियों और प्रक्रियाओं से संबंधित हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक- भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना 1 अप्रैल सन् 1935 को रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया ऐक्ट 1934 के अनुसार हुई। इस अधिनियम ने भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना के लिए राह प्रशस्त की जो कि केंद्र सरकार के लिए केंद्रीय बैंक की भूमिका अदा करता है.
संघ और राज्यों के लिए लोक सेवा आयोग का गठन
अनुच्छेद 315 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग और प्रत्येक राज्य के लिए एक लोक सेवा आयोग का भी गठन हुआ था. साथ ही यह ही प्राविधान बनाया गया था की दो या अधिक राज्य यह करार कर सकेंगे कि राज्यों के उस समूह के लिए एक ही लोक सेवा आयोग होगा.
यदि इस आशय का संकल्प उन राज्यों में से प्रत्येक राज्य के विधान-मंडल के सदन द्वारा या जहाँ दो सदन हैं वहाँ प्रत्येक सदन द्वारा पारित कर दिया जाता है, तो संसद उन राज्यों के हित पूर्ति करने के लिए विधि द्वारा संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग की नियुक्ति का उपबंध करगी।
भारत के संविधान द्वारा प्रतिस्थापित
तत्कालीन भारतीय नेता इस एक्ट के बारे में उत्साहित नहीं थे क्योंकि प्रांतीय स्वायत्तता देने के बावजूद राज्यपालों और वायसराय के पास काफी 'विशेष शक्तियां' थीं.
पृथक सांप्रदायिक निर्वाचक (Separate Communal Electorates) मंडल एक ऐसा उपाय था जिसके माध्यम से अंग्रेज यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि कांग्रेस पार्टी कभी भी अपने दम पर भारत में शासन न कर सके. यह लोगों को विभाजित रखने का एक तरीका भी था.
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 153
इसके तहत प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल का प्रावधान किया गया है। एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
राज्यपाल केंद्र सरकार का एक नामित व्यक्ति होता है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। संविधान के मुताबिक, राज्य का राज्यपाल दोहरी भूमिका अदा करता है। वह राज्य की मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है।
इसके अतिरिक्त वह केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत क्षमादान और दंडविराम आदि की भी शक्ति प्रदत्त की गई थी.