पुलिस अगर FIR पर समय से कार्रवाई नहीं करती है तो आपको क्या करना चाहिए? जानिए
नई दिल्ली: यदि आप किसी भी अपराध की पुलिस के समक्ष शिकायत दर्ज करते हैं तो उसकी प्रक्रिया एक एफआईआर (FIR) से शुरू होती है। अपने नजदीकी पुलिस स्टेशन में जाकर आप पुलिस अधिकारी को बताते हैं कि जिस अपराध के खिलाफ आप शिकायत दर्ज करवाने आए हैं तो एक संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) है या फिर एक असंज्ञेय अपराध (Non-Cognizable Offence) है।
यह जानने के बाद पुलिस अधिकारी आपकी शिकायत को लिखित रूप में, एक एफआईआर (FIR) के तौर पर दर्ज करते हैं और कानून के अनुसार उसपर जांच शुरू करते हैं।
पुलिस अधिकारी एफआईआर दर्ज करने के बाद अगर उस मामले में या सम्बंधित व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते हैं और पुलिस की लापरवाही (Police Negligence) के चलते आपको मामला आगे बढ़ता नहीं नजर आता है तो आपको आगे क्या करना चाहिए, आपके पास क्या विकल्प हैं, आइए जानते हैं.
Also Read
- TASMAC Corruption Case: फिल्म निर्माता आकाश भास्करन को मद्रास हाई कोर्ट से राहत, ईडी ने वापस लिया नोटिस, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स लौटाने पर जताई सहमति
- लैंडलॉर्ड-टेनेंट का विवाद सिविल नेचर का, पुलिस इसमें पुलिस नहीं कर सकती हस्तक्षेप, जानें जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने क्यों कहा ऐसा
- 'शव के लिए अधिकारियों के पास जाएं', Andhra HC ने मृत माओवादियों के अंतिम संस्कार की अनुमति दी
पुलिस अधीक्षक से करें शिकायत
अगर आपको एफआईआर दायर हुए काफी समय हो चुका है लेकिन पुलिस ने उसपर कोई संतोषजनक कार्रवाई नहीं की है तो आप पुलिस अधीक्षक (Superintendent of Police) को एक एप्लकिशन लिख सकते हैं जो 'आपराधिक प्रक्रिया संहिता' (Code of Criminal Procedure) की धारा 154 के खंड 3 के तहत मामले की जांच खुद करेंगे या किसी अन्य पुलिस अधिकारी को जांच का निर्देश देंगे।
यह अधिकार पुलिस अधीक्षण को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 36 के तहत मिलता है।
सीधे मैजिस्ट्रेट को कर सकते हैं संपर्क
आप चाहें तो सीधे संबंधित मैजिस्ट्रेट से संपर्क कर सकते हैं जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 156 के खंड 3 के तहत पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई और काम को चेक कर सकते हैं। आप किसी सेकेंड क्लास मैजिस्ट्रेट से भी संपर्क कर सकते हैं जिन्हें चीफ जुडिशुयल मैजिस्ट्रेट ने कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 190 के खंड 2 के तहत पुलिस के एक्शन पर चेक रखने का अधिकार दिया है।
मैजिस्ट्रेट को अगर यह पता चलता है कि उस मामले में पुलिस ने किसी प्रकार का कोई एक्शन नहीं लिया है या उनकी कार्रवाई ठीक से नहीं हुई है तो वो पुलिस को जरूरी एक्शन लेने का निर्देश दे सकते हैं और पुलिस के काम पर नजर भी रख सकते हैं।
जांच पूरी होने के बाद पुलिस अधिकारी को बिना किसी देरी के मैजिस्ट्रेट को चार्जशीट देनी होती है। मैजिस्ट्रेट चाहें तो पुलिस द्वारा फाइनल रिपोर्ट के सबमिशन के बाद मामले को री-ओपन करने का भी आदेश दे सकते हैं।
आपराधिक शिकायत हो सकती है दर्ज
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 200 के तहत आप चाहें तो कार्रवाई न होने पर एक आपराधिक शिकायत (Criminal Complaint) भी दर्ज कर सकते हैं। ऐसा करने पर आपका और गवाहों का शपथ के तहत परीक्षण होगा और फिर उन बयानों को लिखित रूप में दर्ज किया जाएगा; इसपर शिकायतकर्ता, गवाहों और मैजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर लिए जाएंगे।
राज्य के या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी कर सकते हैं अप्रोच
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि आप चाहें तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission) या फिर राज्य के मानवाधिकार आयोग (State Human Rights Commission) के पास जाकर पुलिस की लापरवाही और निष्क्रियता की शिकायत दर्ज कर सकते हैं। शिकायत दर्ज करने के लिए आपको अपनी जानकारी, पीड़ित के डिटेल्स, घटना का विवरण और मानवाधिकारों के संरक्षण में हुई लापरवाही या इनके उल्लंघन की जानकारी देनी होगी।
अदालत में दायर की जा सकती है रिट याचिका
इन सब में से अगर कोई भी विकल्प आपकी मदद नहीं कर पाता है तो आप आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय (High Court) में रिट याचिका (Writ Petition) दायर कर सकते हैं।
उपयुक्त एक्शन न लेने पर पुलिस के खिलाफ कार्रवाई
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि अगर आपका इंवेस्टिगेटिंग ऑफिसर (Investigating Officer) ठीक तरह से आपके मामले में कार्रवाई नहीं कर रहा है और आ उसके खिलाफ शिकायत दर्ज करते हैं तो अधिकारी को इसके लिए सजा मिल सकती है।
भारतीय दंड संहिता की धारा 166A (Section 166A of The Indian Penal Code) के तहत अगर कोई आईओ (IO) जानबूझकर किसी भी ऐसे कानून की अवज्ञा करता है जो जांच करने के तरीके को नियंत्रित करता है तो उसे कम से कम छह महीने की जेल की सजा सुनाई जाएगी जिसे बढ़ाकर दो साल भी किया जा सकता है।
दोषी पर आर्थिक जुर्माना भी लगाया जा सकता है; यह अपराध एक संज्ञेय अपराध है, जिसमें जमानत मिल सकती है।