Olga Tellis Vs Bombay Municipal Corporation: यह मामला किस तरह से Right To Life से जुड़ा है- जानिये
नई दिल्ली: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सभी नागरिकों को जीवन जीने का आधिकार प्राप्त है और इसी मौलिक अधिकार में जीवन को सुखपूर्वक निर्वाह करने का अधिकार भी शामिल है। यह अनुच्छेद भारत के प्रत्येक नागरिक को जीवन जीने और उसकी निजी स्वतंत्रता को भी सुनिश्चित करता है, यदि कोई अन्य व्यक्ति या कोई संस्था किसी व्यक्ति के इस अधिकार का उल्लंघन करने का प्रयास करता है, तो पीड़ित व्यक्ति को सीधे उच्चतम न्यायालय तक जाने का अधिकार होता है, और इसी अधिकार को संरक्षित करने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम का मामला सामने आया जिसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय दिया जो आजीविका के अधिकार और बेघर और फुटपाथ निवासियों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से संबंधित है।
इस मामले को अक्सर "फुटपाथ निवासी मामला" भी कहा जाता है, आइये जानते है क्या था पूरा मामला।
क्या था मामला
ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम के मामले में महाराष्ट्र राज्य और बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने फुटपाथ पर रहने वालों और बॉम्बे में मलिन बस्तियों में रहने वालों को बेदखल करने का फैसला किया।
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उसके बाद ही, महाराष्ट्र के उस समय के मुख्यमंत्री ए आर अंतुले ने 13 जुलाईre को झुग्गी-झोपड़ियों और फुटपाथ पर रहने वाले लोगों को बॉम्बे से बाहर निकालने और उन्हें उनके मूल स्थान पर निर्वासित करने का आदेश दिया। बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एक्ट, 1888 की धारा 314 के तहत निष्कासन (eviction) की कार्यवाही की जानी थी।
मुख्यमंत्री की घोषणा के बारे में सुनकर उन्होंने राज्य सरकार और बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के अधिकारियों को मुख्यमंत्री के निर्देश (Directives) को लागू करने से रोकने के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता ओल्गा टेलिस और कुछ अन्य याचिकाकर्ताओं द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। उन्होंने आवास और आजीविका की कोई वैकल्पिक व्यवस्था किए बिना फुटपाथ निवासियों को बेदखल करने और विस्थापन को चुनौती दी।
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया की यह भारतीय संविधान के तहत उनके मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनुच्छेद 21) के अधिकार का उल्लंघन है।
प्रतिवादी के कार्य को याचिकाकर्ता ने इस आधार पर चुनौती दी थी कि यह संविधान के आर्टिकल 19 और 21 का उल्लंघन है। उन्होंने यह घोषणा करने के लिए भी कहा कि बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एक्ट, 1888 की धारा 312, 313 और 314, संविधान के आर्टिकल 14, 19 और 21 का उल्लंघन है।
इस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा जिन मुद्दों पर विचार किया जाना था वे इस प्रकार है
मौलिक अधिकारों (fundamental Right)) के खिलाफ विबंधन (Estoppel) या मौलिक अधिकारों की छूट का सवाल था, दूसरा ये कि संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जीवन के अधिकार का दायरा क्या है और बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन एक्ट, 1888 के प्रावधानों (प्रोविजंस) की संवैधानिकता क्या है और इसके साथ ही क्या फुटपाथ पर रहने वाले लोग आई.पी.सी. के तहत “अतिचारी (Trespasser)” हैं?
याचिकाकर्ता का दावा
आवेदक की ओर से परिषद ने तर्क दिया कि आर्टिकल 21 द्वारा गारंटीकृत “जीवन के अधिकार” में निर्वाह के साधन का अधिकार शामिल है और यदि उसे उसकी मलिन बस्तियों और उसके फुटपाथ से निकाल दिया गया तो वह अपनी आजीविका से वंचित हो जाएगा, जो उसके जीवन के अधिकारों से वंचित करने के समान होगा और इसलिए असंवैधानिक कहलाएगा।
याचिकाकर्ता ने कहा कि फुटपाथ पर अतिक्रमण को खत्म करने के लिए 1888 के एक्ट की धारा 314 द्वारा निर्धारित प्रक्रिया मनमानी और अनुचित है, क्योंकि यह न केवल अतिक्रमण के उन्मूलन (एलिमिनेशन) से पहले नोटिफिकेशन प्रदान करती है, बल्कि यह भी प्रदान करती है कि म्युनिसिपल कमिशनर सुनिश्चित कर सकते हैं कि अतिक्रमण को “बिना सूचना के” हटा दिया जाएगा।
प्रतिवादी का तर्क
बचाव पक्ष के वकील ने कहा कि फुटपाथ के निवासियों ने हाई कोर्ट में स्वीकार किया था कि उन्होंने फुटपाथ या सार्वजनिक सड़कों पर केबिन स्थापित करने के किसी भी मूल अधिकार का दावा नहीं किया है और वे निर्धारित समय के बाद उनको हटाने के लिए नहीं रोकेंगे।
प्राकृतिक न्याय के प्रश्न पर क्या यह तर्क दिया गया कि सुनवाई की यह संभावना किसे दी जाए? सार्वजनिक संपत्ति पर अतिक्रमण करने वाले घुसपैठिए को दी जाए? या उन लोगों को दी जाए जो अपराध करते हैं?
कोर्ट की टिप्पणि
कोर्ट ने कहा कोई भी व्यक्ति उस स्वतंत्रता का व्यापार नहीं कर सकता है जो उसे संविधान द्वारा प्रदान की गई है। एक कार्यवाही में उसके द्वारा दी गई छूट, चाहे वह कानून की गलती से हो या किसी और प्रकार से, कि उसके पास कोई विशेष मौलिक अधिकार नहीं है या वह उसका दावा नहीं करता है, और वह इस कार्यवाही में या किसी अन्य बाद की प्रक्रिया में उसके खिलाफ एक एस्टॉपल नहीं बना सकता है। इस तरह की रियायत, अगर लागू की जाती है, तो यह संविधान के उद्देश्य के विपरीत होगी।”
कोर्ट ने फैसला
आर्टिकल 21 द्वारा प्रदान किया गया जीवन का अधिकार विशाल है। इसका केवल यह मतलब नहीं है कि यह जीवन को केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही इस अधिकार को हटाया जा सकता है। यह जीवन के अधिकार का सिर्फ एक पहलू है। आजीविका का अधिकार इस अधिकार का समान रूप से महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि कोई भी जीविका के साधनों के बिना नहीं रह सकता है।
यदि निर्वाह के अधिकार को जीवन के संवैधानिक अधिकार के हिस्से के रूप में नहीं माना जाता है, तो किसी व्यक्ति को उनके जीवन के अधिकार से वंचित करने का सबसे आसान तरीका यह होगा कि उन्हें उनके निर्वाह के साधनों से वंचित कर दिया जाए। इस तरह की कमी न केवल इसकी सामग्री और अर्थ के जीवन को नकार देगी बल्कि जीवन को असंभव बना देगी।
हालांकि, कोर्ट ने कहा अगर आजीविका के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा नहीं माना जाता है, तो ऐसा अभाव कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार जरूरी नहीं होना चाहिए। किसी व्यक्ति को उसके जीवन निर्वाह के अधिकार से वंचित करने का यह मतलब होगा की उसे उसके जीवन से वंचित कर दिया गया है।
1985 में ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के फैसले में कहा गया कि फुटपाथ पर रहने वालों को समझाने का मौका दिए बिना अनुचित बल का इस्तेमाल कर उन्हें बेदखल करना असंवैधानिक है। यह उनके आजीविका के अधिकार का उल्लंघन है।