Separation of Powers: विधायिका और न्यायपालिका को संविधान में किस तरह संतुलित रखा गया है? जानिए
नई दिल्ली: भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है और यह कहा जाता है कि मूल रूप से देश तीन स्तंभों पर खड़ा हुआ है जो विधायिका (Legislature), कार्यकारिणी (Executive) और न्यायपालिका (Judiciary) हैं। इन तीनों स्तंभों का अपना-अपना महत्व, अपने-अपने अधिकार और अपनी सीमाएं हैं. साथ ही, इन तीनों संस्थानों की शक्तियों और अधिकार-क्षेत्र में साफ तरीके से रेखाएं खींची गई हैं जो इन्हें एक दूसरे के कामों में हस्तक्षेप करने से बाधित करती हैं।
विधायिका, कार्यकारिणी और न्यायपालिका- तीनों संस्थान एक दूसरे से स्वतंत्र हैं और भारत के संविधान में इसे 'अधिकारों के विभाजन' (Separation of Powers) को स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है। संविधान के वो कौन से प्रावधान हैं, जो विधायिका और न्यायपालिका के बीच के 'सेपरेशन ऑफ पावर्स' को संतुलित रखते हैं और क्या कभी इसमें वास्तविक रूप में अपवाद देखा गया है? आइए इस बारे में जानते हैं.
संसद में न्यायाधीश को लेकर चर्चा पर प्रतिबंध
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 121 (Article 121 of The Constitution of India) 'संसद में चर्चा पर प्रतिबंध' (Restriction on Discussion in Parliament) को लेकर है।
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इस अनुच्छेद के तहत संसद के सत्र के दौरान, उच्चतम न्यायालय (Supreme Court of India) या किसी भी उच्च न्यायालय (High Court) के न्यायाधीश या उनके काम करने के तरीकों पर कोई संवाद नहीं किया जा सकता है, ये प्रतिबंधित है। बता दें कि किसी न्यायाधीश को लेकर संसद में सिर्फ तब चर्चा हो सकती है जब उन्हें हटाने हेतु Impeachment मोशन इंट्रोड्यूस किया गया हो।
क्या कहता है संविधान का अनुच्छेद 122?
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 122 (Article 122 of The Indian Constitution) में 'अदालतें संसद की कार्यवाही की जांच नहीं करेंगी' (Courts not to Enquire into Proceedings of Parliament) विषय पर बात की गई है।
संविधान के इस अनुच्छेद का पहला पॉइंट है कि संसद में हुई कार्यवाही की वैधता पर, प्रक्रिया की किसी भी कथित अनियमितता के आधार पर सवाल नहीं उठाए जाएंगे।
अनुच्छेद 122 का दूसरा बिंदु यह कहता है कि संसद का कोई भी अधिकारी या सदस्य, जिसमें इस संविधान द्वारा या इसके तहत संसद में प्रक्रिया या व्यवसाय के संचालन को विनियमित करने या संसद की व्यवस्था को बनाए रखने की शक्तियां निहित हैं, उनके द्वारा की गई शक्तियों के इस्तेमाल के संबंध में किसी भी अदालत के क्षेत्राधिकार के अधीन नहीं होगा।
जब सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया विधान सभा का फैसला..
आमतौर पर न्यायपालिका विधायिका से जुड़े किसी भी मामले में हस्तक्षेप नहीं करती है लेकिन कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं जब न्यायपालिका ने विधायिका के किसी फैसले को अदालत की नजरों से गलत ठहराया है।
बता दें कि कुछ साल पहले महाराष्ट्र विधान सभा (Maharashtra Legislative Assembly) ने भाजपा (BJP) के बारह विधायकों को अध्यक्ष के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए एक साल के लिए निलंबत कर दिया था। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश एएम खनविलकर (Justice AM Khanwilkar) की अध्यक्षता वाली पीठ ने विधान सभा के इस फैसले को 'असंवैधानिक' (Unconstitutional) और 'मनमाना' (Arbitrary) बताया था।
उच्चतम न्यायालय का यह कहना था कि जुलाई, 2021 के मॉनसून सत्र से विधायकों को सिर्फ तब तक के लिए निलंबित किया जा सकता है जब तक की सत्र की अवधि होती है। ऐसे में इन विधायकों को छह महीनों से ज्यादा का निलंबन नहीं दिया जा सकता है, यह सीमा संविधान में निर्धारित की गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया था कि उनके हिसाब से विधान सभा द्वारा पारित प्रस्ताव असंवैधानिक और मनमाने होने के साथ-साथ अवैध और संसद की शक्तियों के परे हैं।