Advertisement

जानिए देश के पहले Sedition के मुकदमे के बारे में- Queen-Empress vs Jogendra Chunder Bose

प्रतिवादी (Defendant) ने अदालत में यह तर्क दिया कि राजद्रोह का आरोप केवल जो वास्तविक लेखक जिन्होने उस लेख को लिखा है उनपर पर ही धारा 124A के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है, न कि प्रकाशक और अन्य व्यक्तियों पर जिन्होंने इस लेखन के प्रकाशन में मदद की. यह तथ्य पर आधारित था कि मूल रूप से अधिनियमित धारा 124 A में यह उल्लेख नहीं था कि लेखक के अलावा किसी अन्य द्वारा राजद्रोही लेखन का प्रकाशन भी अपराध माना जाएगा.

Written By My Lord Team | Published : March 20, 2023 5:23 AM IST

नई दिल्ली: देश में धारा 124 A के तहत राजद्रोह का पहला अदालती मुकदमा 1891 में दर्ज हुआ था, जब स्थानीय प्रेस मुखर पर था और भारतीय राष्ट्रवाद बहुत तेज़ी से बढ़ रहा था. मुकदमा बंगाली अखबार बंगोबासी (Bangobasi) के खिलाफ था, जिसे कलकत्ता उच्च हाईकोर्ट में दायर किया गया था. इस मामले में चार लोगों को गिरफ्तार किया गया था जिसमें अखबार के संपादक और मैनेजर शामिल थे.

राजद्रोह कानून को पहली बार 1870 में लागू किया गया था. भारतीय संविधान के लागू होने से पहले दंड संहिता की धारा 124-A का इस्तेमाल किसी भी तरह की राजनीतिक बहस को खत्म करने के लिए किया जाता था. राजद्रोह के प्रावधान के तहत, ब्रिटिश सरकार ने कई राष्ट्रवादी राजनेताओं, पत्रकारों और प्रेस के मालिकों, जिनमें लेखक और कवि भी शामिल थे, के साथ बुरा व्यवहार किया.
Advertisement

राजद्रोह के अनुसार जब खुले आचरण के जरिए जैसे भाषण और संगठन किसी देश या राज्य की स्थापित सरकार के खिलाफ विद्रोह करना है, जिसका मूल रूप से अर्थ राज्य के खिलाफ असंतोष दिखाना है.

Also Read

More News

क्यों हुई थी गिरफ़्तारी ?

श्री बोस “बंगोबासी” नामक समाचार पत्र के संपादक थे, जिनके द्वारा एक लेख प्रकाशित किया गया था, जिसमें धर्म के लिए खतरा पैदा करने, उसमे दखल देने और भारत के साथ जबरदस्ती कानून थोपने के लिए उम्र की सहमति की अवधि कम करने के कानून की आलोचना की गई थी. अखबार द्वारा प्रकाशित लेख ने ब्रिटिश सरकार पर भी नकारात्मक प्रभाव डाला था.
Advertisement

इस लेख के चलते समाचार-पत्र “बंगोबासी” के मालिक, सम्पादक, प्रबंधक एवं मुद्रक को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अरुचि रखने और लेख प्रकाशित करके भारत सरकार को बदनाम करने के आरोप में दंड संहिता की धारा 124-ए एवं 500 के तहत आरोप तय किया गया.

यह मामला भारतीय इतिहास में राजद्रोह के पहले कानून के रूप में दर्ज किया गया था. इस मामले में अदालत ने अपने बहुचर्चित फैसले में "असंतोष" और "अस्वीकृति" शब्द के बीच अंतर स्थापित किया.

कोर्ट में क्या दलीलें दी गईं?

मामले में बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि केवल वास्तविक लेखक पर ही धारा 124ए के तहत देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा सकता है, न कि प्रकाशक और अन्य व्यक्तियों पर जिन्होंने यह लेखन के प्रकाशन में मदद की. यह इस तथ्य पर आधारित था कि मूल रूप से अधिनियमित धारा 124 A में यह उल्लेख नहीं था कि लेखक के अलावा किसी अन्य द्वारा राजद्रोही लेखन के लिए प्रकाशक भी अपराधी माना जाएगा.

बचाव पक्ष ने अपनी दलीलों में तर्क दिया कि प्रतिवादियों को लेखक के कृत्यों के लिए आपराधिक रूप से उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है, जो केवल उनका एजेंट था. प्रतिवादी ने यह भी तर्क दिया कि बंगोबासी में प्रकाशित लेखों में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह या बल के उपयोग के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रोत्साहन नहीं था और इसलिए यह वैध आलोचना की सीमा से अधिक नहीं था.

अदालत का फैसला

बचाव पक्ष की दलीलों को खारिज करते हुए अदालत ने फैसला सुनाया कि अखबार में छपे लेख में बगावत का कोई जिक्र नहीं है, हालाँकि माफी मांगने के बाद श्री बोस के खिलाफ कार्यवाही बंद कर दी गई थी.

अदालत ने इस मामले में देशद्रोह की परिभाषा में दिए गए "असंतोष" और "अस्वीकृति" शब्दों की संक्षेप में व्याख्या करते हुए कहा कि अप्रसन्नता स्नेह के विपरीत एक भावना को संदर्भित करती है जो अरुचि या घृणा की राशि होगी. जबकि अस्वीकृति को अस्वीकृति के रूप में संदर्भित किया गया था, लेकिन प्रतिवादी ने दोनों को सामान्य बताया.

अदालत ने बचाव पक्ष के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि लेखों ने असंतोष या विद्रोह पैदा नहीं किया, महसूस किया कि औरंगज़ेब और कालापहाड़ जैसे "अत्याचारियों" के साथ तुलना करने से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ घृणा और शत्रुता की भावना पैदा होगी जिसके परिणामस्वरूप हिंसा हो सकती थी.

इस मामले में जूरी किसी सर्वसहमति के निर्णय पर नहीं पहुंच पाई थी, जिसके बाद जज बने ज्यूरी को पुन:विचार करने का मौका किया. लेकिन फैसले से पूर्व बचाव पक्ष द्वारा बिना शर्त माफी मांगे जाने पर राजद्रोह के मामले को ही समाप्त कर दिया गया.

इस तरह भारतीय कानून के इतिहास के पहले राजद्रोह कानून के तहत दर्ज मुकदमें में माफी मांग जाने के बाद मुकदमें को रद्द कर दिया गया था.