झूठी FIR या चार्जशीट के मामलें में CrPC की धारा 482 के तहत आप खटखटा सकते हैं हाई कोर्ट का दरवाजा
नई दिल्ली: कानून लोगों की रक्षा के लिए है, इसके साथ खिलवाड़ का अधिकार खुद उनके पास भी नहीं है जिन्हे इस कानून के तहत कुछ अधिकार प्राप्त है. पुलिस के पास यह अधिकार है कि वो लोगों की शिकायत दर्ज करे, लेकिन वह शिकायत झूठी है या सच इसका निरीक्षण करना भी पुलिस की ही जिम्मेदारी है, लेकिन कई बार जानबूझ कर या अपने फायदे लिए या फिर लापरवाही के कारण पुलिस के द्वारा किसी बेगुनाह के खिलाफ झूठी FIR या चार्जशीट फाइल कर ली जाती है जिसके कारण आम लोग कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने पर मजबूर हो जाते हैं. आज आपको बताएंगे कि अगर आपके खिलाफ कोई झूठी शिकायत दर्ज करवाए तो आपको क्या करना चाहिए.
आपके खिलाफ यदि झूठी FIR दर्ज कराई जाती है या निराधार चार्ज शीट फाइल की जाती है, तो ऐसे में आप दण्ड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure - CrPC) की धारा (Section) 482 के तहत झूठी एफआईआर (First Information Report) को रद्द करने के लिए एप्लीकेशन फाइल करके या संविधान के अनुच्छेद 226 या 32 के तहत निषेध रिट या परमादेश की रिट फाइल करके हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं. चलिए जानते हैं क्या है CrPC की धारा 482 और संविधान के अनुच्छेद 32 या 226.
CrPC की धारा 482
“दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (CrPC) की धारा 482 के अधीन हाई कोर्ट को अंतर्निहित शक्ति (Inherent Power) प्रदान की गई है जिसका उद्देश्य न्यायालय की कार्यवाही को दुरुपयोग से बचाना है और न्याय के उद्देश्यों को बनाए रखना है.”
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धारा 482 के तहत आप अपने खिलाफ दर्ज एफआईआर को चैलेंज करते हुए हाईकोर्ट से निष्पक्ष न्याय की मांग कर सकते हैं. इसके लिए आपको अपने वकील के माध्यम से हाई कोर्ट में एक प्रार्थना पत्र देना होगा. जिसमें आप पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर पर प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं.
इतना ही नहीं अगर आपके पास अपनी बेगुनाही के सबूत है जैसे; Audio Recording, Video Recording, Photographs या Documents तो आप उनको अपने प्रार्थना पत्र के साथ संलग्न जरूर करें. ऐसा करने से हाई कोर्ट में आपका केस मजबूत बन जाता है और आपके खिलाफ दर्ज एफआईआर कैंसिल होने के आसार मजबूत हो जाते हैं.
CrPC की धारा 482 से संबंधित मामले
Allahabad High Court में एक आरोपित ने सीआरपीसी 482 के तहत अपराधिक विविध याचिका दायर की थी. याचिका में युवक ने उसके खिलाफ पॉक्सो और दुष्कर्म की धाराओं में दायर की गई पुलिस की चार्जशीट और निचली अदालत के संज्ञान लेने के आदेश को चुनौती दी थी. इस मामले में आरोपित युवक अपने पड़ोस की मुस्लिम लड़की के साथ प्रेम विवाह के उद्देश्य से फरार हो गया था. जिसके बाद लड़की के घर वालों ने उसके खिलाफ अहपरण और दुष्कर्म का मामला दर्ज करवाया था.
जांच के बाद आवेदक के खिलाफ पुलिस की ओर से दायर चार्जशीट में भी पुलिस ने पॉक्सो के साथ दुष्कर्म के आरोप तय किए. अतिरिक्त जिला न्यायाधीश/विशेष न्यायाधीश (पॉक्सो अधिनियम) ने भी पुलिस की चार्जशीट को स्वीकार करते हुए संज्ञान लिया. जब यह मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट तक पहुंचा तो कोर्ट ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद कहा कि पुलिस ने उचित जांच के बाद ही चार्जशीट दायर की है और अदालत ने भी सबूतो के आधार पर संज्ञान लिया है. इसलिए, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि याचिकाकर्ता के खिलाफ चल रही आपराधिक कार्यवाही अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग है. इसलिए, अदालत ने कार्यवाही को रद्द करने के लिए आवेदक की याचिका को खारिज कर दिया.
जगमोहन सिंह बनाम विमलेश कुमार एवं अन्य
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस ए एस बोपन्ना की पीठ इलाहाबाद हाईकोर्ट के सितंबर, 2021 के फैसले के खिलाफ एक अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उनके समक्ष आपराधिक विविध रिट याचिका की अनुमति दी गई थी और आईपीसी की धारा 419, 420, 467, 468, 471, 504 और 506 के तहत मार्च, 2021 की प्राथमिकी को रद्द कर दिया गया था.
इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा है कि आपराधिक कार्यवाही को अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग के रूप में कहा जा सकता है." जब प्राथमिकी में आरोप किसी भी अपराध का खुलासा नहीं करते हैं या रिकॉर्ड पर ऐसी सामग्री है जिससे न्यायालय उचित रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि कार्यवाही न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग कर रही है."
कोर्ट ने कहा है, "सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए, हाईकोर्ट को आमतौर पर इस बात की जांच शुरू नहीं करनी चाहिए कि विश्वसनीय सबूत हैं या नहीं. अधिकार क्षेत्र का प्रयोग संयम से, सावधानी से और सतर्कता के साथ ही किया जाना चाहिए. जब इस तरह की कवायद सीआरपीसी की धारा 482 के विशिष्ट प्रावधानों द्वारा ही उचित है."
संविधान के अनुच्छेद 226 या 32
अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन अथवा किसी अन्य उद्देश्य’ के लिये सभी प्रकार की रिट जारी करने का अधिकार प्रदान करता है.
जानकारी के लिए आपको बता दें कि यहां पर किसी अन्य उद्देश्य’ का अर्थ है किसी सामान्य कानूनी अधिकार के प्रवर्तन से है. इस प्रकार रिट को लेकर हाई कोर्ट का अधिकार क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) की तुलना में काफी व्यापक है.
जहां एक ओर सर्वोच्च न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में ही रिट जारी कर सकता है, वहीं उच्च न्यायालय को किसी अन्य उद्देश्य के लिये भी रिट जारी करने का अधिकार है.
अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) यह एक मौलिक अधिकार है, जो भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त अन्य मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करने का अधिकार देता है.