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कोर्ट में Civil Case कैसे दायर किया जाता है, जानिए पूरी प्रक्रिया

How to File a Civil Case in Court in India

अदालत में दर्ज कराने वाले मुकदमे मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं- आपराधिक और सिविल। यदि आप को अदालत में एक सिविल केस फाइल करना हो तो आप वो कैसे करेंगे, इसकी प्रक्रिया क्या है, आइए जानते हैं..

Written By Ananya Srivastava | Updated : July 19, 2023 12:38 PM IST

नई दिल्ली: भारत में हर दिन अदालत में कई मामले दर्ज किये जाते हैं, बता दें कि मामले मुख्य रूप से दो तरह के होते हैं- सिविल (Civil) और आपराधिक(Criminal)। सिविल मामले आमतौर पर पैसों या संपत्ति की वजह से हुए झगड़ों से जुड़े होते हैं। भारत में अगर आप किसी परेशानी में हो जहां आपको न्यायालय के समर्थन की जरूरत पड़ती है, तो ऐसे में मामला दर्ज करने का तरीका क्या है, इसकी प्रक्रिया कैसी है, आइए समझते हैं....

भारत में सिविल केस दर्ज करने की प्रक्रिया

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि देश में एक सिविल केस दायर करने की प्रक्रिया बहुत कठिन नहीं है। एक सिविल केस 'सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908' (Code of Civil Procedure, 1908) में दिए गए दिशानिर्देशों के हिसाब से दायर किया जाता है; इसकी प्रक्रिया के चरणों के बारे में डिटेल में जानते हैं...

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  • किसी भी सिविल केस को अदालत में दर्ज करने से पहले आपको दूसरे पक्ष को एक लीगल नोटिस भेजना होगा। इस नोटिस के आधार पर यदि वो 'आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट' करने को राजी हो जाते हैं तो मामला दर्ज नहीं किया जाता; अगर ऐसा नहीं होता है तो आप मुकदमा दायर कर सकते हैं।
  • सबसे पहला चरण प्लेंट दायर करना (File a Suit/Plaint) है। मुकदमा दायर करने के लिए एक लिखित शिकायत तैयार करनी होती है। इस लिखित शिकायत में क्या बातें शामिल करना अनिवार्य है, आइए जानते हैं:

- अदालत का नाम

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-विवाद के दोनों पक्षों का नाम और पता

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- उन धाराओं और आदेशों के बारे में बताने वाला एक संक्षिप्त विवरण जिनके तहत न्यायालय का क्षेत्राधिकार उत्पन्न होता है

- वादी द्वारा की गई मुख्य प्रस्तुतियाँ

- वादी की तरफ से पुष्टि कि इस लिखित शिकायत में जो कुछ लिखा है वो सच है।

  • आपको अब एक वकालतनामे (Vakalatnama) की जरूरत होती है। बता दें कि 'वकालतनामा' एक लिखित दस्तावेज होता है जिसके माध्यम से मुकदमे के पक्ष एक वकील को माननीय न्यायालय के समक्ष उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिकृत करते हैं। आमतौर पर एक वकालतनामे के कंटेंट्स में क्या होता है, जानिए:

- अदालत जो भी फैसला लेती है, उसके लिए वकील को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा

- कार्यवाही हेतु सभी खर्च और लागत का वहन मुवक्किल द्वारा किया जाएगा

- पूरी फीस अगर नहीं दी जाती है तो वकील के पास यह अधिकार है कि वो दस्तावेजों को अपने पास रखें

- कार्यवाही के दौरान अगर मुवक्किल चाहे तो कभी भी अपने नियुक्त वकील को केस से अलग कर सकता है

- वकील अपने विवेक अनुसार, मुवक्किल के हित के लिए, अदालत में सुनवाई के दौरान स्वयं निर्णय ले सकते हैं, उन्हें इसका पूरा अधिकार होगा

  • प्लेंट और वकालतनामा, दोनों तैयार करने के बाद इन्हें कोर्ट की रेजिस्ट्री में सबमिट करना होता है; आपकी जानकारी के लिए बता दें कि 'रेजिस्ट्री' हर अदालत में स्थित एक दफ्तर है जो अदालत में मामलों और कोर्ट फॉर्म्स की जानकारी प्रदान करता है।
  • प्लेंट और वकालतनामा रेजिस्ट्री में दायर करने के लिए आपको कोर्ट फीस जमा करनी होगी जो आपके मुकदमे की वैल्यू के हिसाब से कैल्क्युलेट की जाती है। हर मामले के लिए कोर्ट फीस और स्टैम्प ड्यूटी अलग होती है।
  • अब हियरिंग की प्रक्रिया शुरू होती है; पहली सुनवाई में अगर अदालत को लगता है कि मामला लड़ने लायक है, तो अगली सुनवाई की तारीख तय की जाती है। इसके बाद वादी को अदालत में प्रोसीजर फीस जमा करनी होती है, प्रतिवादी को प्लेंट की दो कॉपियां देनी होती हैं जिनमें से एक स्पीड पोस्ट द्वारा भेजी जानी चाहिए और एक साधारण पोस्ट से। यह काम ऑर्डर जारी किये जाने के सात दिन के अंदर हो जाना चाहिए।
  • प्रतिवादी को सुनवाई की अगली तारीख में प्रस्तुत होने से पहले अपना पक्ष एक लिखित बयान के रूप में दायर करना होगा और ऐसा करने के लिए ऑर्डर डेट से तीस दिन का समय उसे दिया जाता है; यह अवधि अधिकतम 90 दिन तक बढ़ाई जा सकती है।
  • प्रतिवादी के बयान का जवाब वादी द्वारा दायर किया जाता है जिसके बाद अगर कोई अन्य दस्तावेज होते हैं, उन्हें फाइल किया जाता है और इस तरह प्लीडिंग पूरी होती हैं।
  • सिविल कार्यवाही का अगला कदम 'फ्रेमिंग ऑफ इशूज' है जिसमें अदालत इन मुद्दों को इस तरह एकत्रित करती है कि उनके आधार पर बहस हो सके और गवाहों से पूछताछ की जा सके। यह 'इशूज' ही मामले के दायरे हैं जिनके भीतर दोनों पक्षों को रहना होता है।
  • अब अगर जरूरत हो तो गवाहों को अदालत में पेश किया जाता है और उनसे पूछताछ की जाती है जिसके बाद अदालत में अंतिम सुनवाई की तारीख तय की जाती है। इस फाइनल हियरिंग में दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद अदालत अपना अंतिम फैसला सुनाती है।

अगर आपका मुकदमा सत्र अदालत या उच्च न्यायालय में दायर है, तो अदालत के फैसले को आप चुनौती दे सकते हैं लेकिन ध्यान रहे कि उच्चतम न्यायालय में सुनाया गया फैसला अंतिम फैसला होता है, जिसको किसी भी हाल में चुनौती नहीं दी जा सकती है।