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देश में Contempt of Court को लेकर क्या कानून है? क्या कहते हैं नियम, कितनी सजा का प्रावधान है

देश में कोर्ट की अवमानना से जुडे नियमों को आसान भाषा में जानें. इस मामले में कितनी सजा का प्रावधान है, क्यों चलता है कोर्ट की अवमानना का मुकदमा..

Written By My Lord Team | Updated : March 13, 2024 12:52 PM IST

Contempt of Court: हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी बैंक SBI को सख्त हिदायत दी. SBI को इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी जानकारी चुनाव आयोग को देने के आदेश मिले. जानकारी देने के लिए SBI ने 30 जून यानि 4 महीने का समय देने की मांग की थी. सुप्रीम कोर्ट ने आवेदन को सुना. 12 मार्च तक जानकारी देने को कहा, साथ ही चेतावनी दी कि अगर वे ऐसा करने में असफल रहते हैं, तो उनके खिलाफ अदालत की अवमानना का मुकदमा चलाया जाएगा. मान लें अगर SBI जानकारी देने में असफल रहती है, तो उसके सामने कौन-सी कानूनी चुनौतियां का सामना करना पड़ सकता है? कोर्ट की अवमानना में सजा या जुर्माने का क्या प्रावधान है? आइये जानते हैं, आसान शब्दों में...

प्रशांत भूषण पर Contempt of Court का मुकदमा

सीनियर वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ भी कोर्ट की अवमानना का मुकदमा चला, जो देश भर में चर्चा का विषय बना रहा. बताते चले कि साल 2009 में, तहलका पत्रिका में तरुण तेजपाल के साथ प्रशांत भूषण ने इंटरव्‍यू दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट थे. सुप्रीम कोर्ट ने उनके बयान के आधार पर अवमानना का मामला शुरू किया था. बाद में दोनो ने माफी मांगी, तब जाकर इस मामले में जान बचीं.कानून में Contempt Of Court

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Contempt of Court को हिंदी में न्यायालय की अवमानना कहते हैं. इस का न्यायालय के आदेश को नहीं मानने, किसी फैसले को लेकर न्यायालय पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाना और जजों की बदनामी करने के कार्यों को न्यायालय की अवमानना के तौर पर देखा जाता है.

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न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971

भारत में, प्राचीन काल से ही राजाओं या उसके फैसले पर सवाल उठाने वालों के लिए कड़े सजा का प्रावधान है. वहीं, आजादी के बाद, जब सत्ता का हस्तांतरण हुआ, इस नियम को लेकर चर्चाएं तेज हुई. साल, 1952 में न्यायालय की अवमानना का कानून बना. इसके बाद, सन्याल कमिटी की सिफारिशों के आधार पर इस नियम में बदलाव हुए, जो न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में परिणत हुआ.

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वैधानिक आधार

संविधान के अनुच्छेद 129 ने सर्वोच्च न्यायालय को, वहीं अनुच्छेद 215 ने उच्च न्यायालयों को अदालत की अवमानना से जुड़े मामले में कार्रवाई करने की शक्ति देता हैं.

अदालत की अवमानना के प्रकार

ये मामले दो प्रकार के होते हैं: पहला, सिविल और दूसरा अपराधिक. सिविल मामलों में किसी न्यायालय के निर्णय, आदेश या किसी अन्य निर्देशों की अवज्ञा करने से जुड़ा है.

अपराधिक मामलों में वैसे कार्य आते हैं जिसमें प्रकाशन या वैसे कार्य शामिल हैं, जो अदालत के अधिकार को कम करता है. न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है. इन मामलों की कार्यवाही अपराधिक श्रेणी में होती है.

सजा का क्या प्रावधान है?

न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत दोषी को छह महीने की जेल की सजा या 2,000 रूपये का जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है.

सवाल ये भी

कोर्ट की अवमानना, व्यक्ति के बोलने और व्यक्त करने पर प्रतिबंध लगाता है. बोलने की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है, अनु्च्छेद 19(2) द्वारा भारतीय नागरिकों को मिली है. कोर्ट की अवमानना द्वारा व्यक्ति के मौलिक अधिकार कहां तक उचित है.

इस विषय पर कानूनविद, आलोचक एवं बुद्धजीवी के विचार भलें ही अलग-अलग हों, लेकिन अदालत के फैसले से नाराजगी जताने का तरीका अलग है, अगर आप ट्रायल कोर्ट के फैसले संतुष्ट नहीं तो उसे हाईकोर्ट में चुनौती दे सकते हैं. हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला सर्वमान्य है. साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी हमें कुछ दायित्वों के साथ मिली हैं, जो हमें गैर-जिम्मेदार होकर बोलने की स्वछंदता पर रोक लगाती है.