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A K Gopalan Vs State of Madras: इस मामले का Preventive Detention Act से क्या सम्बन्ध है

इस मामले में, अपीलकर्ता, एके गोपालन, जो कि एक भारतीय कम्युनिस्ट नेता थे जिन्होंने कई सालों तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सेवा की। उन्हें 1950 के निवारक निरोध अधिनियम ( Preventive Detention Act ) के तहत हिरासत में लिया गया था।

Written By My Lord Team | Updated : August 7, 2023 12:54 PM IST

नई दिल्ली: एके गोपालन बनाम मद्रास राज्य (AK Gopalan Vs State of Madras), 1950 भारतीय न्यायिक प्रणाली का एक ऐतिहासिक मामला है, जिसके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को प्रतिपादित किया, और आमजन से जुड़े मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) को संरक्षित किया.

इस केस के माध्यम से उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक मामलों में छिपी कानून की कई कमियों को दूर करने का भी काम किया । आइये विस्तार से जानते है क्या था पूरा मामला।

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क्या है पूरा मामला

इस मामले में, अपीलकर्ता, एके गोपालन, जो कि एक भारतीय कम्युनिस्ट नेता थे, को 1950 के निवारक निरोध अधिनियम ( Preventive Detention Act ) के तहत हिरासत में लिया गया था। उनके तर्क के अनुसार, उन्हें 1947 से बिना किसी मुकदमे के जेल में पृथक तरीके (Isolated Cell) में बंद रखा गया था, और उन्हें आपराधिक कानूनों के तहत उत्तरदायी बनाया गया था। उन्होंने यह तर्क दिया कि उनके मामले में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं किया गया और उन्हें निष्पक्ष सुनवाई का अवसर प्रदान नहीं किया गया ।

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इसके बाद गोपालन ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32(1) के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट (Habeas Corpus writ) के तहत हिरासत निवारण अधिनियम, 1950 की धारा 3(1) के तहत दिए गए आदेश के खिलाफ एक याचिका दायर की। उन्होंने तर्क दिया कि आदेश रोकथाम और नजरबंदी के तहत पारित किया गया था, जो कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है।

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उन्होंने आगे कहा कि उनके खिलाफ जारी किया गया आदेश गलत इरादे से पारित किया गया है. गोपालन ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया' (Procedure Established by Law) का मतलब कानून की उचित प्रक्रिया है। इसके विषय में बात करते हुए उन्होंने कहा , कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया और इसलिए यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है.

इस मामले के तहत उठाए गए मुद्दे

इस मामले में कई मुद्दे उठाए गए जिनमें यह भी शामिल था कि क्या रोकथाम और हिरासत अधिनियम 1950 ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन किया है। दूसरा- क्या संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के बीच कोई संबंध है, और आख़िर में उसके नैसर्गिक न्याय (Natural Laws) का उल्लंघन होता है या नहीं?

यह मामला छह जजों की बेंच के सामने रखा गया. इस मामले में एमके नांबियार , एसके अय्यर और वीजी राव ने गोपालन का प्रतिनिधित्व किया। मद्रास राज्य के महाधिवक्ता के राजा अय्यर, सीआर पट्टाबी रमन और आर गणपति ने मद्रास राज्य का प्रतिनिधित्व किया। एमसी सीतलवाड ने भारत संघ का प्रतिनिधित्व किया, जो मामले में हस्तक्षेपकर्ता थे।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने पक्षों की दलीलों का विश्लेषण किया और माना कि संविधान के अनुच्छेद 21 और 19 के बीच कोई संबंध नहीं है। अदालत ने आगे कहा कि इस मामले में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं किया गया। आखिर में अदालत ने श्री गोपालन द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया।

इस मामले में भारत की शीर्ष अदालत ने भारतीय संविधान के प्रावधानों की व्याख्या की। इस मामले ने एक मिसाल कायम की कि भारतीय अदालतें भविष्य के मामलों में भारतीय संविधान के प्रावधानों की व्याख्या और उन्हें कैसे लागू करेंगी।

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उन पहले मामलों में से एक था जिसमें भारत में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को लागू किया गया था। यह मामला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने इस सिद्धांत को स्थापित किया कि भारतीय संविधान एक जीवित दस्तावेज़ है और इसकी व्याख्या बदलते समय और परिस्थितियों के आलोक में की जा सकती है।

Principles of Natural Justice

सभी छह जजों ने अलग-अलग राय लिखीं. बहुमत ने माना कि अधिनियम की धारा 14, जो हिरासत के आधारों के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करती है, असंवैधानिक थी। न्यायमूर्ति फ़ज़ल अली ने असहमतिपूर्ण निर्णय दिया।

प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत एक कानूनी सिद्धांत है जो मानता है कि सभी व्यक्ति उचित और निष्पक्ष उपचार के हकदार हैं। इस सिद्धांत के लिए आवश्यक है कि निर्णय पूर्वाग्रह ( prejudice) या पूर्वाग्रह के बिना किए जाएं और इसमें शामिल सभी पक्षों को सुनने का एकसमान अवसर मिले।

इस सिद्धांत के अनुसार किसी को भी उसके ही मामले में जज नहीं किया जाएगा और इसका दूसरा सिद्धांत कहता है कि किसी भी व्यक्ति को अनसुना नहीं किया जाएगा और इसके साथ हि साथ यह प्रत्येक व्यक्ति को यह जानने का अधिकार है कि उसका निर्णय किस कारण से लिया गया है। ये तीनों नियम प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत में शमिल किया गया है ।