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मुस्लिमों में द्विविवाह मामले पर Supreme Court ने कहा समय पर Constitution Bench का गठन करेंगे

याचिका में कहा गया है कि कोई भी राज्य इस तरह से आपराधिक कानून नहीं बना सकता है जो एक ही अधिनियम बनाकर भेदभाव पैदा करता है जो कुछ के लिए दंडनीय हो सकता है, दूसरों के लिए "सुखद" हो सकता है.

Written By Nizam Kantaliya | Published : March 23, 2023 8:52 AM IST

नई दिल्ली: Supreme Court ने मुस्लिमों में bigamy की प्रथा को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई के लिए उचित समय पर Constitution Bench का गठन करने की बात कही है.

गुरूवार को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में जुड़ी याचिका को CJI DY Chandrachud, Justices PS Narasimha और JB Pardiwala की पीठ के समक्ष अधिवक्ता और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा मेंशन किया गया.

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याचिका को मेंशन करने पर CJI डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि उचित समय पर वे एक संविधान पीठ का गठन करेंगे और इस पर फैसला करेंगे.

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असंवैधानिक घोषित करने की मांग

याचिका में कहा गया है कि द्विविवाह की प्रथा को केवल एक धार्मिक समुदाय के लिए अनुमति नहीं दी जा सकती है, जबकि अन्य धर्मों के व्यक्तियों के लिए यह प्रतिबंधित है. इस प्रकार याचिका ने एक घोषणा की मांग की है कि यह प्रथा असंवैधानिक है, महिलाओं के प्रति दमनकारी है और समानता का विरोध करती है.

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याचिका में प्रार्थना की गई है कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 494 और मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 की धारा 2 को असंवैधानिक घोषित किया जाए.  ये दोनो धाराए मुस्लिम पुरुषों को एक से अधिक पत्नी रखने में सक्षम बनाती हैं.

IPC 494 के अनुसार "जो कोई भी, पति या पत्नी के जीवित रहते हुए, किसी भी मामले में शादी करता है, जिसमें इस तरह के पति या पत्नी के जीवन के दौरान होने के कारण ऐसी शादी शून्य है, उसे एक अवधि के लिए 7 साल के कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माना के लिए भी उत्तरदायी होगा."

धर्म के आधार पर भेदभाव

याचिका में IPC की धारा 494 की इस परिभाषा से 'किसी भी मामले में जिसमें ऐसा विवाह होने के कारणों से शून्य है' को हटाने का अनुरोध किया गया है. याचिकाकर्ता के अनुसार यह धारा केवल धर्म के आधार पर भेदभाव करती है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 (1) का उल्लंघन है.

याचिका में कहा गया है कि कोई भी राज्य इस तरह से आपराधिक कानून नहीं बना सकता है जो एक ही अधिनियम बनाकर भेदभाव पैदा करता है जो कुछ के लिए दंडनीय हो सकता है, दूसरों के लिए "सुखद" हो सकता है.

याचिका में कहा गया है कि "धार्मिक प्रथा के आधार पर दंडात्मक कार्रवाई में अंतर नहीं किया जा सकता है और दंडात्मक कानून को समान रूप से लागू किया जाना चाहिए, जिसका अपराधी पर लागू व्यक्तिगत कानून से कोई संबंध नहीं है"