आम लोगो तक न्यायिक पहुंच बनाने में कर्नाटक बना देश का प्रथम राज्य- जानिए कारण
नयी दिल्ली: देश में आम लोगो तक न्याय को सुगम तरीके तक पहुंचाने और आम लोगो की पहुंच न्याय तक बनाने में कर्नाटक राज्य देश के विभिन्न राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में अव्वल है, जबकि दूसरा स्थान तमिलनाडु ने हासिल किया है.
मंगलवार को जारी की गई इंडिया जस्टिस रिपोर्ट’ में देश में न्याय की पहुंच आम जनता तक करने में अग्रणी राज्यों की सूची जारी की गई है.
रिपोर्ट के अनुसार, आम जनता की न्याय तक सुगम पहुंच प्रदान करने वाले टॉप 5 राज्यों में 4 दक्षिणी भारत के राज्य हैं. एक करोड़ से अधिक आबादी वाले बड़े राज्यों की इस सूची में तीसरा स्थान तेलंगाना ने हासिल किया है, जबकि गुजरात और आंध्र प्रदेश क्रमश: चौथे और पांचवें स्थान पर हैं.
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आंध्र प्रदेश ने चौकाया
वर्ष 2022 के लिए जारी की गई इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार आंध्र प्रदेश राज्य ने अतिउत्साहजनक प्रदर्शन किया है. वर्ष 2020 की तुलना में आंध्र प्रदेश ने 12वें पायदान से 7 पायदान की छलांग लगाते हुए सीधे पांचवें स्थान पर पहुंच गया है.
न्याय की पहुंच बनाने के मामले में किसी भी राज्य की अब तक की ये सबसे बड़ी छलांग है. आन्धप्रदेश राज्य ने पिछले दो सालों में निचली अदालतों से लेकर हाईकोर्ट तक के मामले और सामाजिक न्याय के मामलों भी बड़ी उछाल लाने में कामयाब रहा है.
दूसरे राज्य के रूप में वर्ष 2020 के छठे स्थान की तुलना में गुजरात ने इस बार तीन पायदान की छलांग लगायी है.
शीर्ष 5 में से 4 दक्षिण राज्य
आईजेआर-2022 की जारी की गई रिपोर्ट में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य ये भी सामने आए है कि आम जनता तक न्याय की पहुंच आसान बनाने में उत्तर भारत की बजाए दक्षिण भारत के राज्य बेहतर कार्य कर हरे है.
रिपोर्ट के अनुसार, न्याय तक सुगम पहुंच प्रदान करने वाले टॉप 5 राज्यों में चार दक्षिणी भारत से हैं.कर्नाटक तमिलनाडु के बाद एक करोड़ से अधिक आबादी वाले बड़े राज्यों की इस सूची में तीसरा स्थान तेलंगाना ने हासिल किया है, जबकि गुजरात और आंध्र प्रदेश क्रमश: चौथे और पांचवें स्थान पर हैं.
कमजोर पक्ष और त्रिपुरा का गिरा रिकॉर्ड
रिपोर्ट ने देश की न्यायपालिका के उस कमजोर पक्ष को भी उजागर किया है. जिसके अनुसार देश में दिल्ली और चंडीगढ़ को छोड़कर, कोई भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश न्यायपालिका पर अपने कुल वार्षिक व्यय का एक प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं कर पाया है.
एक करोड़ से कम आबादी वाले सात छोटे राज्यों की सूची में सिक्किम ने इस मामले में पहला स्थान हासिल किया है। रिपोर्ट के अनुसार, इस श्रेणी में अरुणाचल प्रदेश दूसरे और त्रिपुरा तीसरे स्थान पर है। वर्ष 2020 में सिक्किम जहां दूसरे स्थान पर था, वहीं अरुणाचल प्रदेश पांचवे स्थान पर था.
रिपोर्ट के अनुसार छोटे राज्यों में न्याय की पहुंच आम जनता तक बनाने में त्रिपुरा पहले स्थान से खिसककर तीसरे स्थान पर पहुंच गया है.
हाईकोर्ट में 30 और अधीनस्थ अदालतों में 22 प्रतिशत रिक्तिया
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट में न्यायपालिका में रिक्तियों, बजटीय आवंटन, बुनियादी ढांचे, मानव संसाधन, कानूनी सहायता, जेलों की स्थिति, पुलिस और राज्य मानवाधिकार आयोगों के कामकाज जैसे विभिन्न मापदंडों पर राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है.
मंगलवार को जारी की गई रिपोर्ट में देश के 25 हाईकोर्ट और 2500 अधीनस्थ अदालतों में रिक्तियों को लेकर भी रिपोर्ट जारी की गई है.
रिपोर्ट के अनुसार देश के हाईकोर्ट में जजों के 30 प्रतिशत पद खाली हैं, जबकि अधीनस्थ अदालतों में यह आंकड़ा 22 प्रतिशत का है.
रिपोर्ट बताती है कि देश के हाईकोर्ट में स्टाफ की कमी निर्धारित संख्या का 26 प्रतिशत है.
10 लाख पर 19 जज
रिपोर्ट में कहा गया है,देशभर की अदालतों में जजो के स्वीकृत पदों के सापेक्ष गणना करने पर दिसंबर 2022 तक, देश में प्रत्येक 10 लाख लोगों के लिए 19 जज थे और 4.8 करोड़ मामले लंबित थे.
वर्ष 1987 की शुरुआत में विधि आयोग ने देश में अगले 10 वर्ष में जजो की संख्या में वृद्धि करने का सुझाव देते हुए कहा था कि अगले एक दशक के अन्दर 10 लाख की आबादी पर 50 जजो की जरूरत होगी.
रिपोर्ट के अनुसार देश के हाईकोर्ट मे जजों के रूप में महिलाओं की भागीदारी केवल 13 प्रतिशत और अधीनस्थ अदालतों में महिला जजों की संख्या 35 प्रतिशत है.
महिलाओं की बढी भागीदारी
महिलाओं को लेकर रिपोर्ट में एक सकारात्मक पक्ष बताया गया है जिसके अनुसार ज्यादातर राज्यों ने वकीलों के पैनल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई है तथा राष्ट्रीय स्तर पर, यह हिस्सेदारी 18 प्रतिशत से बढ़कर 25 प्रतिशत हो गई है.
आईजेआर के अनुसार, 28 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के हाईकोर्ट में में हर चार में से एक मामला पांच साल से अधिक समय से लंबित है, जबकि 11 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के जिला अदालतों में प्रत्येक चार में से एक मामला पांच वर्ष से अधिक समय से लंबित है.
रिपोर्ट के अनुसार इस पहलू का भी जिक्र किया गया है कि मुफ्त कानूनी सहायता पर भारत का प्रति व्यक्ति खर्च मात्र 3.84 रुपये प्रति वर्ष है, जबकि इसके लिए भारत की 80 प्रतिशत आबादी पात्र है.