क्या आत्महत्या के लिए उकसाना अपराध है? IPC की धारा 306 में जाने क्या हैं सजा के प्रावधान
अक्सर ऐसे मामले देखने को मिलते है, जिसमें किसी व्यक्ति को इस हद तक परेशान कर दिया जाता है कि वह अपनी जान लेने के लिए मजबूर हो जाता हैं. खबरों में ये भी आता है कि लोगों के खिलाफ आत्महत्या के मामलों में, मुकदमा दर्ज़ किया गया है. ऐसे में यह विचार आता है कि किसी के आत्महत्या करने पर, दूसरे व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा क्यों किया गया.
यह ज़्यादातर उन मामलों में होता है, जहाँ यह आशंका होती है कि जिस व्यक्ति ने आत्महत्या की है, उसे ऐसा कदम उठाने के लिए उकसाया गया था. उस व्यक्ति को इतना परेशान कर दिया गया था कि उसने अपनी जान ही ले ली. हम आपको बताएंगे कि यदि कोई व्यक्ति, किसी अन्य व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए उकसाता है तो ऐसे व्यक्ति के खिलाफ धारा 306 के तहत क्या कार्रवाई होती है.
धारा 306 के तहत "उकसाना" शब्द का मतलब क्या है?
भारतीय दंड सहिंता की धारा 306 के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति, दूसरे व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए उकसाता है और वह व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है तो उस व्यक्ति को इस धारा के तहत सज़ा सुनाई जा सकती है.
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इस धारा के अनुसार, ऐसा कोई भी कार्य, जो दूसरे व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए प्रोत्साहित करे, सहायता करे, समर्थन करे या फिर मदद करे, ये सब कार्य "उकसाना" शब्द के मतलब के दायरे में आते हैं.
लेकिन यह धारा केवल तब लगाई जा सकती है जब यह बात साफ़ हो कि जिस व्यक्ति पर यह आरोप लगाया जा रहा है, उसने जानबूझकर दूसरे व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिए उकसाया हो यानि यह धारा लगाने के लिए आरोपी का मकसद पता होना अत्यंत आवश्यक है.
कितने साल की सजा
अगर दोष सिद्ध हो जाता है तो उकसाने वाले व्यक्ति को अधिकतम 10 साल के कारावास और जुर्माने की सज़ा हो सकती है.
किस श्रेणी का है अपराध?
भारतीय कानून के अनुसार, धारा 306 का अपराध एक गैर-जमानती (non-bailable) और संज्ञेय (अपराधी को बिना वारंट (Warrant) के गिरफ्तार किया जा सकता है) अपराध है. इसका यह मतलब है कि भारत में आत्महत्या के लिए उकसाना, एक संगीन अपराध है और इसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाती है.
क्या यह अपराध समझौता योग्य है?
ऐसा अक्सर देखने को मिलता है कि धारा 306 के मामलों में पक्षों द्वारा समझौता कर लिया जाता है और फिर वह अपनी शिकायत को वापिस लेने का प्रयत्न करते है. भारतीय न्यायालयों द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि धारा 306 के मामले समझौता योग्य नहीं होते हैं.
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनेकों फैसलों में ये कहा गया है कि धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) जैसे संगीन मामलों में दर्ज़ हुई प्राथमिकी को पक्षों के बीच हुए समझौते के आधार पर हाई कोर्ट द्वारा रद्द नहीं किया जा सकता है. इसका मतलब यह है कि हाई कोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 के अंतर्गत दिए गए अधिकार का इस्तेमाल करते हुए, प्राथमिकी को रद्द नहीं कर सकती है.
धारा 306 से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मामले
अमलेंदु पाल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2009) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह बताया गया था कि उकसाने और आत्महत्या करने के बीच में सीधा संबंध होना चाहिए. यानि आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में, आत्महत्या करने के लिए उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सबूत होना अनिवार्य है.
एम. मोहन बनाम राज्य पुलिस उपाधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) (2011) के मामले में, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि दोषसिद्धि का समर्थन तब तक नहीं किया जा सकता है, जब तक कि व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने या उसकी सहायता करने के लिए दोषी की ओर से अनुकूल कार्रवाई किए जाने के सबूत न हो.
मरियनो एंटो ब्रूनो बनाम इंस्पेक्टर ऑफ़ पुलिस (2022) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 306 को परिभाषित किया। न्यायालय के निर्णय के अनुसार, आरोपी का कृत्य ऐसा होना चाहिए कि आरोपी ने मृतक को ऐसी स्थिति में धकेल दिया कि उसने आत्महत्या कर ली.
आम तौर पर ऐसा देखा जाता है कि धारा 306 के अंतर्गत अपराध को साबित करना बहुत कठिन होता है क्योंकि अपराध का मुख्य साक्षी ही गवाही देने के लिए मौजूद नहीं है, लेकिन यह नामुमकिन भी नहीं है और भारतीय न्यायालयों कुछ मामलों में, आरोपी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी पाया है और कठोर सज़ा भी सुनाई है.