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Euthanasia: सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु प्रक्रिया को किया आसान, मजिस्ट्रेट की मंजूरी की शर्त हटाई

सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु को लेकर दिए अपने 2018 के ऐतिहासिक फैसले की कुछ शर्तो में संशोधन को मंजूरी देते हुए ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की मंजूरी और मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट से जुड़ी शर्त को हटा दी है. सुप्रीम कोर्ट शीघ्र ही इस मामले में विस्तृत आदेश जारी करेगा.

Written By Nizam Kantaliya | Published : January 24, 2023 1:13 PM IST

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में पैसिव यूथेनेसिया यानी इच्छा मृत्यु पर दिए अपने फैसले में संशोधन करने और इस प्रक्रिया को आसान बनाने को तैयार हो गया है.

सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में नागरिकों को लिविंग विल (Living Will) का अधिकार दिया था. इसके तहत कोई व्यक्ति होश में रहते यह लिख सकता है कि गंभीर बीमारी की स्थिति में उसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर जबरन जिंदा न रखा जाए.

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जस्टिस केएम जोसेफ, अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, हृषिकेश रॉय और सी.टी. रविकुमार की 5 सदस्य पीठ ने इस मामले पर सुनवाई के बाद यह माना है कि सख्त प्रक्रिया के चलते लोग इस अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में वर्तमान में जारी प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की मंजूरी और मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट से जुड़ी शर्त को हटाया जाएगा.

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पीठ ने कहा है कि वह लिविंग विल पर ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की मंजूरी जैसी अनिवार्यता को खत्म करेगा और साथ ही मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट की समय सीमा भी तय की जाएगी.

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2018 का ऐतिहासिक फैसला

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2018 में इच्छा मृत्यु पर फैसला देते हुए गरिमा के साथ मरने के अधिकार को एक मौलिक अधिकार और अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) के एक पहलू के रूप में मान्यता दी थी, इसके बावजूद इच्छामृत्यु करने के इच्छुक लोगों को मुश्किल शर्तो के चलते बेहद बोझिल प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है.

पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.के. सीकरी, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण की पीठ ने ये फैसला दिया था.

9 मार्च 2018 के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इच्छामृत्यु (Passive Euthnesia) की अनुमति देने के साथ ही इसके लिये कड़े दिशा-निर्देश भी जारी किये थे.सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उस याचिका पर आया है जिसमें लाइलाज बीमारी से जूझ रहे ऐसे व्यक्ति के लिये इच्छामृत्यु की इज़ाज़त देने की मांग की गई थी, जिसके स्वास्थ्य में सुधार होने की कोई संभावना नहीं रह गई है.

कठोर शर्ते

इस फैसले में दो मुख्य कठोर शर्ते मेडिकल बोर्ड और मजिस्ट्रेट की अनुमति को लेकर थी. पहले मेडिकल बोर्ड यदि यह तय करता है कि इलाज हटाना ठीक रहेगा तो इलाज करने वाला चिकित्सक क्षेत्र के कलेक्टर को इसकी जानकारी देने का नियम है.

उसके बाद जिला कलेक्टर भी एक मेडिकल बोर्ड का गठन करेगा, जिसमें ज़िले के सीएमओ और तीन विशेषज्ञ चिकित्सकों को शामिल करने का प्रावधान किया गया.

दूसरे मेडिकल बोर्ड द्वारा प्रमाण पत्र जारी करने के बाद प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की मंजूरी जरूरी होती थी. मरीज द्वारा लिखी गई वसीयत को भी प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट से सत्यापित करवाना अनिवार्य कराना होता.

2018 के फैसले के अनुसार इच्छामृत्यु के लिए दो गवाहों और प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) की उपस्थिति में वसीयत बनाने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किया जाना आवश्यक था.

एनजीओ की याचिका

कॉमन कॉज संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर 2018 के फैसले में इच्छा मृत्यु पर जारी किए गए दिशानिर्देशों में संशोधन करने का अनुरोध किया था.

याचिका में कहा गया था कि शीर्ष अदालत ने 2018 में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को वैध कर दिया था और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक "जीवन के अधिकार" के हिस्से के रूप में "गरिमा के साथ मरने का अधिकार" रखा था. लेकिन गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति को जीवनदान वापस लेने या बंद करने के लिए मजिस्ट्रेट की मंजूरी अनिवार्य है.

संस्था की ओर से बताया गया कि बेहद कठोर शर्तों के चलते मरीज के परिजनों और ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. और यह प्रक्रिया पहले से ही परेशान मरीज और उसके परिजनों के लिए बोझिल हो जाती है.

प्रक्रिया को किया आसान

सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्य पीठ ने अब इस मामले में संशोधन को मंजूरी देते हुए कहा कि इच्छामृत्यु के दस्तावेज पर अब लिविंग विल के निष्पादक द्वारा दो अनुप्रमाणित गवाहों की उपस्थिति में हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो कि स्वतंत्र और एक नोटरी या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष सत्यापित करेगा.

पीठ ने आगे कहा कि इस दस्तावेज पर गवाह और नोटरी अपनी संतुष्टि दर्ज करेंगे कि दस्तावेज़ को स्वेच्छा से और बिना किसी दबाव या प्रलोभन या मजबूरी के और सभी प्रासंगिक सूचनाओं और परिणामों की पूरी समझ के साथ तैयार किया गया है.

पीठ ने अपने फैसले में ये भी स्पष्ट किया कि मरीज के गंभीर रूप से बीमार होने और ठीक होने की कोई उम्मीद न होने पर लंबे समय तक चिकित्सा उपचार से गुजरने की स्थिति में, उपचार करने वाले चिकित्सक को अग्रिम निर्देश के बारे में पता चलने पर, दस्तावेज़ की वास्तविकता और प्रामाणिकता का पता लगाना होगा.

क्या है यूथेनेसिया (इच्छामृत्यु)

यूथेनेसिया (इच्छामृत्यु) दर्द या पीड़ा को खत्म करने के लिए जानबूझकर किसी व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने के कार्य को कहा जाता है. यूथेनेसिया के दो प्रकार बताए गए हैं- सक्रिय इच्छामृत्यु यानी एक्टिव यूथेनेसिया (Active Euthanasia) और निष्क्रिय इच्छामृत्यु यानी पैसिव यूथेनेसिया (Passive Euthanasia).

सक्रिय इच्छामृत्यु, या असिस्टेड सुसाइड, जानबूझकर और सक्रिय रूप से कुछ करने का कार्य है, जैसे किसी व्यक्ति के जीवन को समाप्त करने के लिए किसी दवा की घातक खुराक का इंजेक्शन लगाना है. वहीं मिसौरी स्कूल ऑफ मेडिसिन के अनुसार निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive Euthanasia) में जानबूझकर रोगी के वेंटिलेटर या फीडिंग ट्यूब जैसे कृत्रिम लाइफ सपोर्ट सिस्टम को रोक दिया जाता है.