क्या आप जानते है कानूनन खुद के खिलाफ सबूत देने के लिए नहीं किया जा सकता मजबूर
नई दिल्ली: हमारे देश के संविधान के तहत देश के नागरिकों को कई अधिकार प्रदान किए गए हैं. संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अनुसार प्रत्येक नागरिक को आत्म-दोष के विरुद्ध भी अधिकार दिया गया है.
इस अधिकार के अनुसार किसी अपराध के लिए आरोपी व्यक्ति को अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है.
हालांकि, भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत दिए “साक्षी” शब्द की व्याख्या करते हुए, इसमें मौखिक और साथ ही दस्तावेजी साक्ष्यों को भी शामिल किया है, ताकि किसी भी व्यक्ति को अपने खिलाफ अभियोजन का समर्थन करने के लिए गवाह बनने के लिए मजबूर ना किया जा सके. यह अधिकार उन मामलों में लागू नहीं होगा, जहां किसी वस्तु या दस्तावेज़ को आरोपी की तलाशी के समय, उसके कब्ज़े से जब्त किया गया हो.
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साथ ही यह अधिकार केवल आपराधिक कार्यवाही के खिलाफ ही उपलब्ध है और यह भी आवश्यक है कि पूछताछ के समय व्यक्ति के विरुद्ध एक औपचारिक रूप से आरोप लगाया गया हो. कोई व्यक्ति केवल इस आधार पर इस मौलिक अधिकार का उपयोग नहीं कर सकता है कि उसके बयान के बाद, उस पर आरोप लग सकता है.
अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत इस अधिकार के इस्तेमाल के लिए इन 3 मुख्य तत्वों का होना अनिवार्य है:
व्यक्ति पर अपराध का आरोप
यह विशेषाधिकार केवल एक अपराध के आरोपी व्यक्ति को ही उपलब्ध है, यानि एक ऐसा व्यक्ति जिसके खिलाफ किसी अपराध का औपचारिक आरोप लगाया गया है, जिसके परिणामस्वरूप उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है.
हमारे देश में FIR दर्ज करना या किसी व्यक्ति के खिलाफ किसी अपराध की औपचारिक शिकायत करना एक संकेत है कि उसके खिलाफ औपचारिक तौर पर आरोप लगाया गया है. लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि उस व्यक्ति की जांच अदालत के समक्ष ही शुरू हुई हो.
सुप्रीम कोर्ट ने नंदिनी सत्पथी बनाम पी एल दानी (1978) के मामले में फैसला दिया गया था कि अनुच्छेद 20(3) का उद्देश्य आरोपी को अनावश्यक पुलिस उत्पीड़न से बचाना है.
इस निर्णय में यह भी स्पष्ट किया गया था कि आत्म-दोष के विरुद्ध अधिकार गवाह और आरोपी, दोनों को समान तरीके से उपलब्ध है. पुलिस जांच के प्रत्येक चरण में अनुच्छेद 20 (3) के तहत विशेषाधिकार का प्रयोग किया जा सकता है.
साक्ष्य के लिए मजबूर करना
यह अधिकार केवल तब इस्तेमाल किया जा सकता है जब किसी व्यक्ति को साक्ष्य देने के लिए मजबूर किया जा रहा हो. बॉम्बे राज्य बनाम काठी कालू ओघाद (1961) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस अधिकार की अवहेलना को साबित करने के लिए यह दिखाया जाना अनिवार्य है कि उस व्यक्ति को बयान देने के लिए मजबूर किया गया था, जिसके कारण उसे दोषी ठहराए जाने की संभावना थी.
मजबूरी में दिया गया सबूत
आरोपी को मजबूर किया गया है कि वह अपने खिलाफ गवाही दे. उपरोक्त काठी कालू के मामले में, यह फैसला दिया गया था कि यह आवश्यक रूप से दिखाया जाए कि गवाह को ऐसा बयान देने के लिए मजबूर किया गया था जिससे उसे दोषी ठहराया जा सकता था.
अनुच्छेद 20 (3) में आत्म-दोष के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है और आरोपी को किसी भी मामले के सन्दर्भ चुप रहने का अधिकार देता है, लेकिन यह अधिकार केवल उन मामलों में लागू होगा जहाँ जवाब देने पर उसे दोषी ठहराए जाने की सम्भावना हो. यह अनुच्छेद उन व्यक्तियों पर लागू होता है, जिन्हें गवाह बनने के लिए मजबूर किया जाता है.
कानून के अनुसार आरोपी को बेवजह प्रताड़ित नहीं किया जा सकता है या उसे अपराध को कबूलने के लिए मजबूर भी नहीं किया जा सकता है. आरोपी से जानकारी प्राप्त करने के लिए उस पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता है. ऐसे मामलों में, अनुच्छेद 20(3) के तहत विशेषाधिकार लागू होता है और आरोपी को सुरक्षा प्रदान करता है. भारतीय न्याय प्रणाली में इसका महत्वपूर्ण स्थान है.