RTI के दायरे में CJI दफ्तर, फिर भी कुछ बातों को क्यों रखा जाता है राज़
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इससे RTI के तहत जवाबदेही से पारदर्शिता और बढ़ेगी. साथ ही ये भाव भी विकसीत होगा की कानून से ऊपर कोई नहीं है. यानि कानून के नजर में हर कोई एक बराबर है.
Written By My Lord Team | Published : January 5, 2023 8:00 AM IST
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट लगातार कानून और कोर्ट रूम की पारदर्शिता को बढ़ाने में प्रयासरत है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका के डिजिटलीकरण की दिशा में एक और कदम उठाते हुए e-SCR प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया. सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में कई ऐसे फैसले हैं जो खुद एक इतिहास बन चुके हैं. फैसलों की ताकत और उनके असर को देखा जाए तो देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बेहतरीन नजीर पेश किया है. अक्सर देखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट कई ऐसे फैसले लिए जिनका सच होना नामुमकिन सा लगता है. उन्ही में से एक फैसला है RTI के दायरे में CJI दफ्तर का आना. भले ही CJI दफ्तर RTI के दायरे में आता है फिर भी हर कोई दफ्तर की पूरी जानकारी को नहीं पा सकता. आईए जानते हैं 1991 से शुरु हुए छोटे से विवाद ने कैसे बड़ा बदलाव किया…
क्या होता है RTI(Right to Information)
इस मामले को समझने के लिए सबसे पहले हमें आरटीआई को समझना होगा. आरटीआई यानि सूचना का अधिकार अधिनियम. मुख्य रूप से भ्रष्टाचार के खिलाफ 2005 में एक अधिनियम लागू किया गया जिसे सूचना का अधिकार यानी RTI कहा गया.आरटीआई (Right to Information) के तहत देश का कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी विभाग से पूछताछ कर सकता है. उसके पास सरकारी विभाग में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए अपने हक की जानकारी लेने का अधिकार है.
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RTI के नियम
इसके तहत किसी भी सरकारी कार्यालय से सूचनाएं मांगी जा सकती हैं. संबंधित कार्यालय को 30 दिन में जवाब देना होता है. हालांकि स्वतंत्रता और जीवन के मामले में जानकारी 48 घंटे में देनी होगी. सूचना नहीं मिलने या प्राप्त जानकारी से संतुष्ट नहीं होने पर 30 दिनों के भीतर उसी दफ्तर में प्रथम अपीलीय अधिकारी के पास अपील कर सकते हैं. यहां भी संतुष्ट न हों, तो 90 दिन में राज्य या केंद्रीय सूचना आयोग में शिकायत की जा सकती है. सूचना आयुक्तों को अपीलों का निपटारा 45 दिन के भीतर करना होता है.सूचना के अधिकार के तहत जानकारी न देने पर अधिकारी या विभाग पर आयोग 25000 रुपए तक का जुर्माना लगा सकता है.
देश में सूचना का अधिकार लागू होने के 14 साल बाद सुप्रीम कोर्ट से सवाल पूछने का हक जनता को मिला. देश के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय भी सूचना के अधिकार के तहत आता है. इस फैसले को खुद सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला 2010 में दायर की गई उस याचिका के तहत सुनाया है, जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी गई थी. जिसमें कहा गया था कि मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय भी आरटीआई के दायरे में आता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी जज RTI के दायरे में आएंगे, लेकिन मुख्य न्यायाधीश के दफ्तर से सूचना लेने की मांग संतुलित होनी चाहिए.
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सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था
पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पांच जजों जस्टिस एन वी रमन्ना, जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड़, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की पीठ ने कहा था कि दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला सही है.पीठ ने कहा कि सूचना का अधिकार और निजता का अधिकार, एक सिक्के के दो पहलू हैं इसलिए मुख्य न्यायाधीश के दफ्तर से सूचना लेने की मांग संतुलित होनी चाहिए.
RTI के दायरे में क्या-क्या आता है
आम नागरिक जजों की चल अचल संपत्ति से जुड़ी जानकारी ले सकते हैं
जजों के चयन और नियुक्ति पर कॉलेजियम के फैसले की जानकारी मिल सकती है.
जजों के वरिष्ठता क्रम और ट्रांसफर से जुड़ी जानकारी भी आप ले सकते हैं.
चीफ जस्टिस बनने और कार्यकाल से जुड़ी जानकारी आप मांग सकते हैं.
RTI के तहत क्या नहीं आता
वरिष्ठता क्रम में किए गए बदलाव से जुड़ी जानकारी.
कॉलेजियम द्वारा जजों के नामों की सिफारिश की वजह नहीं बताई जाएगी.
चीफ जस्टिस के साथ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सरकार से पत्राचार की जानकारी नहीं दी जा सकती.
कोई ऐसी सूचना नहीं मिल सकती जिससे जजों या किसी अधिकारी की निजता के अधिकार का उल्लंघन होता हो.
क्यों लिया गया था ये फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इससे RTI के तहत जवाबदेही से पारदर्शिता और बढ़ेगी. साथ ही ये भाव भी विकसीत होगा की कानून से ऊपर कोई नहीं है. यानि कानून के नजर में हर कोई एक बराबर है.
CJI दफ्तर RTI के दायरे में कैसे आया
RTI एक्टिविस्ट सुभाषचंद्र अग्रवाल ने ही सबसे पहले इसके लिए पहल की. अग्रवाल इस तरह के मुद्दे उठाने के लिए चर्चा में बने रहते हैं. इन्होने 2015 तक छह हजार से ज्यादा बार आरटीआई आवेदन लगाया था. इसके जरिए इन्होंने कई घोटालों को उजागर किया. जैसे- किस तरह योजना आयोग ने सिर्फ दो टॉयलेट्स के रेनोवेशन पर 35 लाख रुपए खर्च कर दिए.
दिल्ली हाईकोर्ट ने दिया था फैसला
साल 2010 में दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का कार्यालय भी सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत आता है. ऐसे में इससे संबंधित व्यक्तियों की सूचना भी आरटीआई के तहत देनी होगी. इस आदेश के विरुद्ध सेक्रेटरी जनरल ऑफ सुप्रीम कोर्ट और सेंट्रल पब्लिक इंफोर्समेंट ऑफिसर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. साल 2010 में दो जजों की बेंच के जज (अब सेवानिवृत्त) सुदर्शन रेड्डी ने पाया था कि इसमें संविधान के महत्व का प्रश्न उठाया गया है. उन्होंने इसे तीन सदस्यीय बेंच के पास भेज दिया. संविधान के आर्टिकल 145(3) के तहत यहां से यह मामला पांच सदस्यीय बेंच तक पहुंच गया. जहां से संविधान बेंच ने यह फैसला दिया है.
कैसे मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट
दिल्ली के चांदनी चौक में कपड़ा व्यापारी सुभाषचंद्र अग्रवाल ने जजों की संपत्ति की जानकारी से जुडे़ रिजॉल्यूशन और उनके द्वारा प्रदान किए जा रहे ब्योरे को लेकर साल 2007 में सुप्रीम कोर्ट में आरटीआई लगाई थी. जानकारी नही मिलने पर अग्रवाल ने सेंट्रल इंफॉर्मेशन कमीशन (सीआईसी) में एप्रोच की. जिसमें सीआईसी ने सुप्रीम कोर्ट को निर्देशित करते हुए कहा कि वह भी आरटीआई के दायरे में है.
कहां से शुरु हुआ विवाद
1991 में सुभाषचंद्र अग्रवाल के चाचा ने दिल्ली में संपत्ति को लेकर उनके पिता पर झूठा मुकदमा दर्ज करा दिया था. चाचा के दामाद, दिल्ली हाईकोर्ट में जज थे. आरोप है कि उन्होंने अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए सुभाषचंद्र के परिवार को प्रताड़ित कराया. 3 जनवरी, 2005 को सुभाषचंद्र अग्रवाल ने तत्कालीन सीजेआई से संबंधित जज के खिलाफ शिकायत की, लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई. हालात इतने खराब थे कि सुभाष ने आत्महत्या तक की कोशिश की. इसके बाद 2005 में आरटीआई कानून आया. तब इन्होंने आरटीआई को अपना हथियार बनाया.
अक्टूबर 2005 में सुभाष ने सुप्रीम कोर्ट में आरटीआई लगाई. जिसके तहत उन्होने पूछा- जिस जज के विरुद्ध उन्होंने शिकायत की थी उस पर क्या कार्रवाई की गई. यहां से कोई जवाब नही मिला. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के साथ ही राष्ट्रपति कार्यालय को भी शिकायत भेजी थी. राष्ट्रपति कार्यालय से शिकायत सुप्रीम कोर्ट रेफर कर दी गई. इस शिकायत को कोर्ट द्वारा संज्ञान में लिया गया. इसके बाद कोर्ट ने पहली बार माना कि सुभाष का मामला आरटीआई के तहत आता है. मामला मीडिया की सुर्खियां बना. इससे दबाव में आए सुभाष के चाचा ने उनके परिवार से समझौता कर लिया.
आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला अयोध्या फैसले के ठीक चार दिन बाद लिया था.