District Level Caste Scrutiny Committee के पास नहीं है किसी जाति को Scheduled Caste घोषित करने का अधिकार: Allahabad High Court
नई दिल्ली: इलाहाबाद उच्च न्यायालय (Allahabad High Court) की लखनऊ पीठ (Lucknow Bench) ने हाल ही में एक मामले में फैसला सुनाते हुए यह बात कही है कि किसी भी जाति को अगर संविधान द्वारा मान्यता दी गईं 'अनुसूचित जाति' की लिस्ट में शामिल करना हो, तो ऐसा सिर्फ अनुच्छेद 341 के माध्यम से राष्ट्रपति या संसद द्वारा किया जा सकता है। यह अधिकार जिला स्तरीय जाति छानबीन समिति को नहीं है।
बता दें कि इस मामले को न्यायाधीश अश्वनी कुमार मिश्रा (Justice Ashwani Kumar Mishra) और न्यायाधीश मनीष कुमार (Justice Manish Kumar) की पीठ द्वारा सुना गया।
'संविधान में किसी जाति को सिर्फ Article 341 से Scheduled Caste के रूप में मान्यता मिल सकती है'
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के जस्टिस अश्वनी कुमार मिश्रा और जस्टिस मनीष कुमार की बेंच के समक्ष एक मामला आया जिसमें याचिकाकर्ता का कहना था कि उन्हें जिला स्तरीय जाति छानबीन समिति के कहने के बाद भी 'अनुसचूति जाति प्रमाणपत्र' (Scheduled Caste Certificate) नहीं जारी किया गया है। बता दें कि याचिकाकर्ता उत्तर प्रदेश राज्य में शिड्यूल्ड कास्ट मानी जाने वाली जाति की एक उप-जाति से हैं।
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सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय की पीठ ने यह कहा है कि किसी भी जाति को संविधान में उल्लेखित 'अनुसूचित जाति' (Scheduled Caste) की लिस्ट में शामिल करने का अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत सिर्फ राष्ट्रपति और संसद के पास है, जिला स्तरीय जाति छानबीन समिति (District Level Caste Scrutiny Committee) ऐसा नहीं कर सकती है।
अदालत का इसपर कहना है कि जिला स्तरीय जाति छानबीन समिति के पास यह अधिकार नहीं है कि वो राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित जाति की उप-जाति को भी इस लिस्ट में अपनी मर्जी से शामिल कर लें; सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर गठित इस समिति का इस मामले में क्षेत्राधिकार नहीं है।
क्या कहता है संविधान का अनुच्छेद 341
सुनवाई के दौरान पीठ ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 (Article 341 of The Constitution of India) की बात की है। अनुच्छेद 341 में वो प्रावधान दिए गए हैं जिनसे किसी जाति को संविधान में दी गईं 'अनुसूचित जाति' की लिस्ट में शामिल किया जा सकता है।
इस अनुच्छेद के पहले खंड के अनुसार राष्ट्रपति किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में जहां वह एक राज्य है, वहां के राज्यपाल से परामर्श के बाद लोक अधिसूचना द्वारा, उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों, अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति, उस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में अनुसूचित जातियां समझा जाएगा
दूसरा खंड यह कहता है कि संसद विधि द्वारा किसी जाति, मूलवंश या जनजाति को अथवा जाति, मूलवंश या जनजाति के भाग को खंड (1) के अधीन निकाली गई अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी या उसमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है उसके सिवाय उक्त खंड के अधीन निकाली गई अधिसूचना में किसी पश्चातवर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
जानें क्या था पूरा मामला
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि याचिकाकर्ता का यह दावा है कि वो 'ढाढ़ी' जाति (Dhadhi Caste) से आते हैं जो उनके हिसाब से 'दुसाध जाति' (Dusadh Caste) की एक उप-जाति है; बता दें कि 'दुसाध जाति' को उत्तर प्रदेश राज्य में 'अनुसूचित जाति' के रूप में माना जाता है। याचिकाकर्ता का यह कहना है क उनकी 31 जुलाई, 2019 को जिला स्तरीय जाति छानबीन समिति से मीटिंग हुई थी जिसमें उनकर द्वारा सक्षम प्राधिकारी को निर्देश दिया गया था कि याचिकाकर्ता के दावों का परीक्षण करने के बाद उन्हें जरूरी प्रमाणपत्र जारी कर दिया जाए।
याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में कहा है कि जिला स्तरीय जाति छानबीन समिति के निर्देश के बावजूद उन्हें 'अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र' देने से इनकार कर दिया गया है।
लखनऊ हाईकोर्ट ने सुनाया ये फैसला
न्यायाधीश अश्वनी कुमार मिश्रा और न्यायाधीश मनीष कुमार की पीठ ने फैसला सुनाते समय यह स्पष्ट किया है कि जब तक कानून के तहत यह अधिसूचना नहीं जारी होती है कि 'ढाढ़ी' भी उत्तर प्रदेश राज्य की 'अनुसूचित जातियों' में शामिल है या वो 'दुसाध' की उप-जाति है, तब तक याचिकाकर्ता इस तरह के अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं।
अदालत ने कहा है कि 'डिस्ट्रिक्ट लेवल कास्ट स्क्रूटिनी कमिटी' का अधिकार क्षेत्र सीमित है और उनका काम इस बात की जांच करना है कि सक्षम प्राधिकारी द्वारा एक जाति प्रमाणपत्र कानूनी रूप से जारी किया गया है या नहीं। यह समिति इस बात का फैसला नहीं कर सकती है कि एक जाति को अनुसूचित जाति की उप-जाति के रूप में शामिल किया जा सकता है या नहीं।
इस आधार पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने याचिका को खारिज कर दिया।