केरल हाईकोर्ट में Muslim Personal Law को चुनौती, लैंगिक भेदभाव के आधार पर मुस्लिम महिला ने दायर की याचिका
नई दिल्ली: लैंगिक भेदभाव के आधार पर एक मुस्लिम महिला ने मुस्लिम पर्सनल लॉ की वैधानिकता को चुनौती देते हुए केरल हाईकोर्ट में याचिका दायर की है. याचिका में दावा किया गया है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ कथित तौर पर पुरुष और महिला के उत्तराधिकारियों के बीच भेदभाव करता है.
याचिकाकर्ता मुस्लिम महिला ने याचिका में Muslim Personal Law (Shariat) Application Act, 1937 और मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत एप्लीकेशन केरल संशोधन एक्ट (Muslim Personal Law (Shariat) Application (Kerala Amendment) Act, 1963 के प्रावधानों को चुनौती दी है.
केरल हाईकोर्ट के जस्टिस वी जी अरुण की पीठ ने इस मामले में याचिका को स्वीकार करते हुए पीठ ने केन्द्र और राज्य के अधिवक्ताओं को सरकार से निर्देश प्राप्त करने के लिए कहा है कि दोनों अधिनियम के प्रावधान लिंग के आधार पर भेदभाव के कारण क्यों नहीं उन्हे शून्य घोषित किया जाए.
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मुस्लिम पर्सनल लॉ
हमारे देश में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम (Shariat Application Act) वर्ष 1937 में मुसलमानों के लिये इस्लामी कानून संहिता तैयार करने के उद्देश्य से पारित किया गया था. इस कानून के अनुसार ब्रिटिश जो उस समय भारत पर शासन कर रहे थे, यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे कि भारतीयों पर उनके अपने सांस्कृतिक मानदंडों के अनुसार शासन किया जाए.
मुस्लिम पर्सनल लॉ के बाद से शरीयत अनुप्रयोग अधिनियम मुस्लिम सामाजिक जीवन के पहलुओं, जैसे शादी, तलाक, विरासत और पारिवारिक संबंधों को अनिवार्य करता है.अधिनियम के अनुसार, व्यक्तिगत विवाद के मामलों में राज्य हस्तक्षेप नहीं करेगा.
आजादी के बाद अन्य धर्मों के पर्सनल लॉ के रूप में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 पारित किया गया, जो हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के बीच संपत्ति विरासत के दिशा-निर्देश देता है.
क्या है मामला
याचिकाकर्ता मुस्लिम महिला के पिता का वर्ष 1981 में निधन हो गया था. याचिकाकर्ता अपनी मां और अपने ग्यारह भाई-बहनों के साथ रह रही थी. वर्ष 1994 में याचिकाकर्ता ने संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत अपने पिता की संपत्ति के हिस्से के लिए अदालत में वाद दायर किया था.
निचली अदालत ने शरिया कानून का पालन करते हुए एक प्रारंभिक और अंतिम डिक्री पारित की, जिसमें याचिकाकर्ता को उसके भाइयों को आवंटित हिस्से में से केवल आधे हिस्से की अनुमति दी गई.
निचली अदालत के इस आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता महिला ने हाईकोर्ट के समक्ष अपील दायर की है.
अपील में महिला ने निचली अदालत के आदेश को रद्द करने का अनुरोध किया है. साथ ही याचिकाकर्ता ने 1937 के अधिनियम की धारा 2 की वैधता को चुनौती दी और 1963 के राज्य अधिनियम की धारा 2 को भी चुनौती दी है.
उत्तराधिकारी होने में भेदभाव
याचिकाकर्ता का कहना है कि शरीयत कानून के अनुसार उसके उत्तराधिकारी होने में भेदभाव किया गया. क्योंकि उसके पिता की संपत्ति का बंटवारा सभी में समान रूप से किया जाना चाहिए. लेकिन शरीयत कानून पुरुष और महिला बच्चों के बीच विभाजन के संबंध में भेदभाव करता है जो कि 2:1 के रूप में सामने आता हैं.
याचिका में कहा गया है कि शरीयत कानून के दोनो प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 13(1) और अनुच्छेद 13(2) के आधार पर शून्य है क्योंकि ये दोनो प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत गारंटीकृत समानता के अधिकार का उल्लंघन करते है.
याचिकाकर्ता ने पीठ के समक्ष कहा कि शरीयत के अनुसार, महिला बच्चों को पुरुष बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है, यानी, एक महिला को विरासत में मिलने वाला हिस्सा पुरुष बच्चे को विरासत में मिलने वाला हिस्सा से कम होता है. यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 का स्पष्ट उल्लंघन है.
हाईकोर्ट ने मामले को सुनवाई के लिए शीतकालीन अवकाश के बाद सूचीबद्ध करने के निर्देश दिए है.