महिला का शील भंग होने पर दर्ज करवायें मुकदमा, अनुभवी वकील की सहायता लें
नई दिल्ली: किसी महिला पर गंदी नजर डालना, सार्वजनिक जगह पर उसकी मर्जी के खिलाफ छूना अपराध की श्रेणी में आता है. कुछ महिलाएं इसके खिलाफ आवाज उठाती हैं तो कुछ जागरूकता की कमी और लोक लाज के कारण खामोशी के साथ सहन कर जाती हैं. लेकिन इससे ऐसे अपराध खत्म नहीं होते बल्कि ऐसी खामोशी बड़े अपराध को आमंत्रित करती है. आईपीसी के तहत इस तरह के अपराध को किसी महिला का शील भंग करना कहते हैं जिसके लिए कठोर सजा का प्रावधान है.
आईए जानते हैं की अगर किसी महिला के साथ शील भंग की कोई कोशिश करता है या कर रहा है तो कैसे कानूनी कदम उठाते हुए सम्बंधित व्यक्ति के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करें.
मुकदमा दर्ज कराने की प्रक्रिया
इस तरह के अपराध के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए वही प्रक्रिया अपनाई जाती है जो अन्य गंभीर अपराधों को दर्ज करने के लिए अपनाई जाती है.
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1-अगर कोई अपराध हुआ है आपके साथ या फिर कोई कोशिश कर रहा है शील भंग करने की सबसे पहले First Information Report (FIR) दर्ज कराएं. ताकि पुलिस तक ये जानकारी पहुंचे की आप किसी खतरे में है ताकि वो आपकी मदद कर सकें. FIR दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत दर्ज की जाती है.
2- जैसे ही आप एफआईआर दर्ज करवाएंगे वैसे ही जांच अधिकारी द्वारा जांच शुरू की जाएगी. जांच अधिकारी जांच के दौरान निम्नलिखित कार्य करते हैं जैसे; सच्चाई और हालातों की जांच करना, सबूत जुटाना, मामले से संबंधित लोगों की जांच करना, उनसे पूछ- ताछ करना, लिखित में उनके बयान लेना और जांच को पूरा करने के लिए आवश्यक अन्य सभी कदमों को उठाकर एक निष्कर्ष निकाला जाता है, और फिर उस निष्कर्ष को पुलिस या मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया जाता है.
3- यदि पुलिस रिपोर्ट और अन्य प्रासंगिक दस्तावेजों पर विचार करने के बाद अभियुक्त को छुट्टी नहीं दी जाती है, तो अदालत आरोप तय करती है जिसके तहत उस पर मुकदमा चलाया जाना है. वारंट मामले में, आरोपों को लिखित रूप में तैयार किया जाना चाहिए.
4- सीआरपीसी 1973 की धारा 241 के तहत दोषी की याचिका के बारे में बताया गया है, आरोपों के निर्धारण के बाद अभियुक्त को जुर्म कबूलने का अवसर दिया जाता है, और अगर वह जुर्म कबूल नहीं करता है तो न्यायाधीश चाहें तो अपने विवेक से आरोपी को दोषी करार दे सकता है.
5- आरोप तय होने के बाद, अभियुक्त दोषी नहीं होने की दलील देता है, फिर अदालत अभियोजन पक्ष को अभियुक्त के अपराध को साबित करने के लिए सबूत पेश करने की मांग करती है. अभियोजन पक्ष को अपने गवाहों के बयानों के साथ अपने साक्ष्यों को मिलाने की आवश्यकता होती है. इस प्रक्रिया को "प्रारंभिक परीक्षा" कहा जाता है. मजिस्ट्रेट के पास किसी भी व्यक्ति को गवाह के रूप में समन जारी करने या किसी दस्तावेज को पेश करने का आदेश देने की शक्ति होती है.
6- आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure) की धारा 313 के उपधारा 1 में यह बताया गया है कि इससे अभियुक्त को मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को सुनने और समझाने का अवसर मिलता है.इसके तहत अदालत अगर चाहे तो बिना चेतावनी दिए उससे ऐसे प्रश्न पूछ सकती हैं.
अगर अभियुक्त की उपधारा 1- के अधीन परीक्षा ली जाएगी तो उससे कोई शपथ नहीं दिलाई जाएगी.
7- अभियुक्त को एक ऐसे मामले में अवसर दिया जाता है जहां वह अपने मामले की पैरवी करने के लिए बरी नहीं होता है. बचाव पक्ष मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य दोनों प्रस्तुत कर सकता है. हमारे देश में, चूंकि सबूत का भार अभियोजन पक्ष पर है, आम तौर पर बचाव पक्ष को किसी भी सबूत का नेतृत्व करने की आवश्यकता नहीं होती है.
8- अभियुक्त को दोषमुक्त या दोषी ठहराए जाने के समर्थन में दिए गए कारणों के साथ अदालत द्वारा निर्णय दिया जाता है. यदि अभियुक्त को बरी कर दिया जाता है, तो अभियोजन पक्ष को अदालत के आदेश के खिलाफ अपील करने का समय दिया जाता है.
वकील की आवश्यकता क्यों होती है
भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code - IPC) में धारा 354 में जिस अपराध के बारे में बताया गया है वह गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है. इसलिए अगर किसी महिला के साथ शील भंग जैसै अपराध होते हैं तो उन्हे अनुभवी वकील को हायर करना चाहिए.