क्या संविधान के Preamble में संसद संशोधन कर सकती है?
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क्या संविधान के Preamble में संसद संशोधन कर सकती है?
सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि संविधान की प्रस्तावना में समानता, बंधुत्व और न्याय के सिद्धांत शामिल हैं. राज्य लोगों को अपने चुने हुए धर्मों का स्वतंत्र रूप से पालन करने की अनुमति देती है. समाजवाद के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि इसे कल्याणकारी राज्य और समान अवसरों के प्रति प्रतिबद्धता को प्रतिबिंबित करना चाहिए.
Written By Satyam KumarUpdated : November 27, 2024 7:42 PM IST
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सेकुलर और सोशलिस्ट
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान से सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है.
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संविधान का बयालीसवां संशोधन
इन याचिकाओं में संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 के तहत 'धर्मनिरपेक्ष' और 'सामाजवादी' शब्दों को प्रस्तावना (Preamble) से हटाने की मांग की गई थी.
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Basic Structure Doctrine
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि संविधान में संशोधन को विभिन्न आधारों पर चुनौती दी जा सकती है, जिसमें संविधान की मूल संरचना (Basic Structure Doctrine) का उल्लंघन शामिल है.
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संसोधन को संशोधन करने की शक्ति
हालांकि अदालत ने आगे कहा कि आर्टिकल 368 संसद को संविधान का संशोधन करने की अनुमति देता है.
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संविधान अंगीकार करने की तारीख
साथ ही संविधान को 26 नवंबर 1949 को भारतीय लोगों द्वारा अपनाया गया था, जो संशोधन की शक्ति को सीमित नहीं करता है.
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प्रस्तावना के सिद्धांत
सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि संविधान की प्रस्तावना में समानता, भ्रातृत्व और न्याय के सिद्धांत शामिल हैं, जो कि संविधान के विभिन्न आर्टिकल में निहित हैं.
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सेकुलरिज्म को लेकर संविधान
सेकुलरिज्म को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जैसे राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है, सभी व्यक्तियों को अपने चुने हुए धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने और प्रचार करने का अधिकार है.
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सुप्रीम कोर्ट का सोशलिज्म पर रूख
वहीं, समाजवाद (Socialist) शब्द को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसे किसी निश्चित समय पर सरकार की आर्थिक नीतियों को प्रतिबंधित करने के रूप में नहीं की जानी चाहिए बल्कि कल्याणकारी राज्य बनने की प्रतिबद्धता और अवसरों की समानता सुनिश्चित करने के रूप में माना जाना चाहिए.
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भारतीय संविधान के अभिन्न अंग
सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि तथ्य यह है कि रिट याचिकाएं 2020 में दायर की गईं, जब ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द प्रस्तावना का अभिन्न अंग बन गए थे,
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हम भारत के लोग
जो इन याचिकाओं को विशेष रूप से संदिग्ध बनाता है, और इनके अर्थों को “हम, भारत के लोग” बिना किसी संदेह के समझते हैं.